तृषा
तृषा
तृषा विकास के पर्यायों की, तैयार है धरा को निगल जाने को,
मानव गतिमान है, आसमां पर परचम लहराने को।
प्रकृति के वरदानों को भस्म कर खुद की जिज्ञासाओं तले
सोच रहा है, अब चांद सितारे उसकी उंगलियों पर चले।
परमात्मा का खौफ कहां? अब तो अहम का हाहाकार है,
इंसानों की बस्ती में, खुद इंसानियत ही लाचार है।
नैतिकता, संस्कार, का पतन तुम्हें किस ओर ले, आया है,
देखो यथार्थ का आईना, अन्तर्मन में अपने, क्या खोया क्या पाया है।