तरबतर रूह
तरबतर रूह
थर्राते होंठों की पंखुड़ियों से
हर ख़्वाब, अंगड़ाई ले रहे
रूह तक तरबतर हुआ है
भीगी है हर ख्वाहिश अनकहे
के हो रिहाई, तड़प की
मिट जाए हर सिलवटें
के ख़ाक हो ना यूँ पिघल के
इस आग में जलता रहे
हर वो लम्हा और हर पल
गुजरे थे जो तनहा हुए
हो मुक्कम्मल, दुआ सभी
जो तेरे सजदे में किए
फिर कोई फ़िक्र ना ग़म रहे
यूँ ही यह मौसम रहे
के रूह तक तरबतर हुआ है
भीगी है हर ख्वाहिश अनकहे