ताकती निगाहें
ताकती निगाहें
ख़ुली हवा में खुलकर हम साँस लेते,
कम संसाधनों में जी भरकर जी लेते,
अपने खेत-खलिहान का अन्न खाते,
गाय,भैंस,बकरी से पशुपालन करते।।
फिर तुम तो गाँव छोड़कर शहर आये,
ख़ुली हवा छोड़ अपने घर में कैद हुए,
सिमट गयी दुनियाँ डिब्बाकार घर में,
बाट जोहते रहे हम लौटने की आस में।।
कभी भी सरपंच आ जातापैसे माँगने,
ऋण लिया था तेरी साइकिल के लिये,
जंग खा गयी साइकिल,तुम ना आये,
आँसू भी सूख गये राह तकते-तकते।
आओ ना गाँव अब किसी तरीके से,
व्यस्तता में हमारी बीमारी के बहाने,
या परिवार,लंगोटिया यारों से मिलने,
चाहे मकान का जीर्णोद्धार करवाने।।
अभी नहीं तो कभी नहीं समझ ले,
हमारा एकमात्र सहारा तो तू ही है,
क्या पता किसी दिन दो कँकाल मिलें,
तू आये पर हम ही जा चुके हो जग से।।
