सज़ा
सज़ा
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यूंँ तो ज़िन्दगी हम अपनी शर्तों पर जिए हैं
बहुत अफ़सोस होता है
हम इतना भी क्यों जिए हैं
ज़िन्दगी के सवालों का हमारे पास
कोई जवाब नहीं
और जिनके पास जवाब है
वो हीं सवाल हुए हैं
चेहरे पर जिनके कोई भाव नहीं आता
ऐसे पत्थर भी हमारे मसीहा हुए हैं
ग़ुरूर उनको भी है बहुत अपनी रईसी का
दिल से जो बहुत निर्धन हुए हैं
हम ना मिलते उनसे तो बहुत
अफ़सोस होता
समंदर भी मिलकर ही लहरों के हुए हैं
मैं अपनों से मिल नहीं सकता
ग़ैर से मिलकर तो वह मग़रूर हुए हैं
कहानियांँ वो हमारी हीं सुनाते हैं
ग़लतियांँ करके जो मशहूर हुए हैं
काश तुम्हारी जगह कोई और
हमें मिल जाता
हम भी बराबरी से रुसवा हुए हैं
हमारा दामन इतना दाग़दार क्यों है
पाप तो बराबरी से हुए हैं
हमारी रुसवाईयों का तो यह आलम है
सारे गुनाहों की हम ही सज़ा हुए हैं।