सुर्ख़ लब
सुर्ख़ लब
क्या कहे उन
सुर्ख़ लबों की रंगत
जिनसे मिलकर हम
भूल बैठे है खुद को।
याद नही आता हमें
कुछ इसके सिवा
मैं क्या था उनसे
मिलने से पहले
बेकार था बेदिल था।
बेक़ाबू या फिर
बेबाक़ बड़ा था
अब उनसे मिलने के बाद
कुछ होना याद नहीं।
बस इतना याद है
अब कोई अपना भी है
जो हम जैसा है
हम सा भी है
उसी के लबों की
सुर्ख़ रंगत ने
बना दिया है दीवाना।
आंखों ने उसकी हम पर
खोल दिया है
इश्क़ का मयख़ाना
वो दिल में बसे।
यूँ मानो दिल मे ही थे
और हम नादां
इस दिल को सिर्फ
धड़कनों के सबब से
समझने में मुफ्तिला रहे।

