सुनो
सुनो
थोड़ा आहिस्ता चलिए,
कहीं कोई अपना पीछे न छूट जाये
सुनो,
पीछे से आकर हौले से कहती थी अक्सर,
देखता भी नही था रूककर,
पीछे मुड़कर,
वक्त के साथ दौड़ने का था जुनून,
मुठ्ठियों मे वक्त कर लेने की थी धुन,
रात को लैपटॉप पर चलती थी उँगलियाँ,
फिर हौले से कहती थी वो,
सुनो, मेरी तिरछी नज़र देख,
चुप हो जाती थी वो,
आहिस्ता-आहिस्ता,
भूल गई वो कहना 'सुनो'
घर से निकलते वक्त,
लगती थी कुछ कमी,
दिखती नही थी पीछे वो खड़ी,
उस रोज, आखिरी दफा,
गोद में सिर रख उसने कहा,
सुनो,
वक्त जैसे वहीं रूक गया,
कहो न,क्या कहना है तुम्हें,
बोलो, न क्या चाहिए तुम्हें,
'वक़्त' उसने हौले से कहा,
और खुली पलकों के साथ ही,
दुनिया को अलविदा कह दिया,
आज वक़्त बेइंतेहा मेरे पास है,
लेकिन गुम हो गई 'सुनो' की आवाज़ है।
बाकी बची उसकी बस यही याद है।

