सुनो स्त्री!
सुनो स्त्री!


सुनो स्त्री !
अब बदला काल
तो तुम भी,
बदलो अपनी चाल
जादू भरी, नशीली
सुरमई, गुलाबी
काली आँखों वाली
छलती और लजाती
उपमाओं से अब
निकलो बाहर
मत करो प्रतीक्षा
श्रीकृष्ण, अर्जुन की
खुद धनुर्धर बन
करो खुद ही
अब अपनी सुरक्षा।
सुनो स्त्री,
अब बदला युग
तो सीखो लेना अब
तुम अपनी सुध
जो तुम्हें ताड़ती हैं
किसी की कामुक
दंभी, बेहया आँखें
उनके सामने अपनी
आँखें झुकाने की जगह
इन निष्ठुर आँखों को
फोड़ना सीखो
जो रचा है समाज ने
तुम्हें अबला कह
पाँव की जूती
बना के रखने के लिए
इस जालसाजी के चक्रव्यूह को
दुर्गा बन तोड़ना सीखो।
सुनो स्त्
री,
अब बदला समय
तो लेना सीखो
तुम खुद के निर्णय
बनो त्रिनेत्रा इसलिए
की कोई दुःषाशन तुम्हें
अब छू न पाए
न अपमानित होना पड़े
तुम्हें अब उस लोकसभा में
जहाँ हर किसी के
आँखों का पानी
अन्याय के आगे
कुछ कह न पाए।
सुनो स्त्री,
जलती तो तुम आज
भी हो, अग्नि परीक्षा में नहीं
सती चिता पर नहीं,
जौहर में भी नहीं
पर कुत्सित कामवासना की ज्वाला में
शैशव, बालिका, युवती, नारी, वृध्दा
में अब कोई भेद न बचा
कुछ बेशरम आँखों के प्याले में
इसलिए खुद के हाथों में अब
अस्त्र धरो
और तुम्हारे
शरीर के हर अंग को
भेदती हैं जो ये
अनगिनत बेशरम आँखें
उनका काली बन संहार करो।