अपनत्व का कल
अपनत्व का कल
कहां गया वो घर अब
जहां पीढ़ियों ने बचपन बिताया था
नापना था मुझे भी
उस घर की चौखट को
जहां छोटे से आंगन में
वक्त गुजर जाया करते थे
संयुक्त परिवार का संगठन
भाई-बहन,दादी बाबा
ताई ताऊ,चाचा चाची
भाभियों की प्यारी नोकझोंक
रिश्तों की मंडी खड़ी रहती
अपनेपन की चाशनी में डुबोती
खाटें जब बिछती थीं
जगह न बचा करती थी
फिर भी किस्से कहानियों में
दादी बाबा की बातों में
खुशियों की महक हुआ करती थी
चूल्हें की रोटियों के साथ
मां ममता परोसा करती थी
चिड़ियां दाना पाकर जहां
उम्मीद का घर न छोड़ा करती थी
गऊ माता को भी प्यार की रोटी मिला करती थी
घर में अन्नपूर्णा की बरक्कत हुआ करती थी
अगल-बगल की छतें
अपनी ही हुआ करती थी
पंतगें घर घर अरमानों की उड़ा करती थीं
तब
न दीवारें थी,न बंटवारा था
फिर भी
पानी रिसते छप्पर ही
असल घर हुआ करते थे
जहां हम रिश्तों को
अपनत्व में जिया करते थे।
