कर्म और प्रकृति
कर्म और प्रकृति
रात को निकली आत्ममंथन की सीढ़ियों पर,
रेगिस्तान में कहीं मृगतृष्णा की तलाश करते,
आत्मा इक पिंजरे में कैद मिली,
कसक थी मन के भीतर , जो दस्तक देने लगी,
चेतना जो एक कोने में सुप्त थी,उसे उठाया,
ईर्ष्या,द्वेष,अज्ञानता से मेरा परिचय करवाया,
स्वार्थ, लालसा,भौतिकता ने भी दौड़ लगायी,
जाति,धर्म, भाईचारे का विभाजन दिखने लगा,
कैंडल मार्च, न्याय का तराजू मेरे बगल से गुजरने लगा,
अशांति,नफरत का द्वार दूसरी ओर खुलने लगा,
ये कैसी अनदेखी दुनिया मुझे दिखाया,
अंतरात्मा मेरी मुझे आश्चर्य चकित कर गयी,
नकरात्मक अंधकार सा मानो मुझे घेर खड़ा,
मैनें प्रश्न कर ही लिया, मन
था बड़ा बेचैन,
रात को चीर इक आवाज आई,
कहा अंधकार तुम्हारे भीतर नहीं,
तो कैसे पहचानोगी अंधकार को ?
कर्म और प्रकृति के साथ जो है चलता,
नकारात्मक अंधकार उसी से है डरता।
