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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

कुछ पता नहीं…

कुछ पता नहीं…

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कुछ पता नहीं

आई कब-कब तेरी याद

दिन बहुत बीत गये

पर आई न तेरे चेहरे की सौगात

कुछ पता नहीं…?


क्षीण होती यादों में

उभरती कई रेखाएं

माथे पर पड़ती 

सिकन की लकीरें

सुधों वाली वह काली रात

इतनी शान्त थी

की पत्ता भी हिले

तो शोर मचाती वह काली रात


अचानक तंद्रा को भेदकर

अंतस् तक को झकझोरती सी

कुछ पता नहीं…?


ऐसा लगा मानों कानों में

कोई सरगोशी कर रहा

छाती के द्वार पर चोट कर रहा

दबे पाँव चुपके-चुपके

दिल में उतर रहा

अपनी यादों को 


मेरे जेहन में नाखूनों से

कुरेद कुरेद कर उभार रहा

कुछ पता नहीं…?


अँधेरें में उठ-उठकर 

उसके आने की आहट

सुनता रहा

न आने की चुभन हिय में लिये

सूनी अँखियों से

झरोखे से निहारता रहा

कहीं से; यादों से उतर कर


सामने आ जाये

जिसकी यादों को 

आँखों में बसाये हुए

चलते आ रहे हैं

हम वीराने भरे जीवन में

कुछ पता नहीं…?


ये इंतजार कब खत्म होगा

कभी लगता है मुझे

वो यादों में रहकर

करता होगा इंतजार 

मेरे मरने का


कफ़न तो पहना है हमने

बस उनकी यादों का

सूनी अँखियों के पैमानों का

कुछ पता नहीं…?


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