STORYMIRROR

Meera Parihar

Classics

4  

Meera Parihar

Classics

ग़ज़ल

ग़ज़ल

1 min
277

छोड़िए क्या अना में रक्खा है।

उसने सबको फ़ना में रक्खा है।।


जब से दीया हवा में सुर्खरू।

जोर उसने फिजा में रक्खा है।।


शम्म थिरके हवा के झोंकों से।

पनाह ए खुद ख़ुदा ने रक्खा है।।


ऐ बशर देख उजालों को जरा।

तीरगी को वफ़ा में रक्खा है।।


बन के साया रहूँ हक़ीक़त की।

मेरा जलना सजा में रक्खा है।।


मेरी मंजिल है अंधेरों तक जाना।

सर तो अपना क़ज़ा में रक्खा है।।


जिनके होने से है रोशनी कायम।

साथ उनको।  वफ़ा में रक्खा है।।


'मीरा,' आइन बनाया आईना।

सब्र अपनी रजा में रक्खा है।।


बशर-मनुष्य

क़ज़ा-मृत्यु

शम्म-रोशनी 

अना-घमंड

तीरगी,-अंधेरा

आइन-नियम, कायदा


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics