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Meera Parihar

Classics

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Meera Parihar

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वसंत धूप

वसंत धूप

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केसरिया रंग रतन थाल ले 

मेरे आँगन उतरी धूप

शुभ्र ज्योति से आलोकित पथ

स्वर्ण प्रभा सी उजली धूप


मणि प्रदीप्त सी मन्दिर मस्जिद

गुरुद्वारे गिरिजा शिखर

स्वतः ऊर्जित खलिहानों पर

निखरी निखरी पसरी धूप


वृक्ष लताओं पर अठखेली

प्राण पयोधि मनुज सहेली

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर से

वैतरणी सी उतरी धूप


आँगन देहरी दरवाजों पर

छिद्र सूक्ष्म पर रखे नजर

बूँद -बूँद में रज कण-कण में

हीरक सी बन सँवरी धूप


कहीं सुहागिन प्रियतमा सी

सखी सलिल नवयोवना सी

सम्मोहन का प्रेमपाश ले

प्रणय बाबरी संकुचित धूप


केलि कुलेलि पुष्प अंक में

सुस्ताती इठलाती धूप

कहीं छाँव का आलिंगन कर

इतराती बलखाती धूप


सुप्त नदी सागर तट पर

अंगड़ाती लरजाती धूप 

मनुज मनीषी आमन्त्रण पर

घर घर भोर उठाती धूप

  

केसर अंग संग रज अभ्रक

व्योमिनी संमोहिनी धूप

कमल अंक के नीर बिंदु में

दिप दिप नवजातिका धूप


बनी गौरेया फिरती घर- घर बस

फुदख फुदक कर रखे कदम

मनुज उपेक्षा से बाहर ही

रहे प्रतीक्षित बाहर धूप


लोकतन्त्र अन्वेषी जग में

घर घर अलख जगाती धूप

समिष्ट प्रेम की उद्घोषक बन

जीवन राग सुनाती धूप


कहीं मनुज की स्वार्थपरता पर

कुटिल क्रूर हो जाती धूप

कहीं निषेधित अवहेलना पर

डरी डरी रह जाती धूप


मीरा मेरे आँगन आकर

धन्य धन्य कर जाती धूप/" 

मणि माणिक मूँगे भर जाती

सुबह सुबह जब आती धूप।


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