सुबह का भूला
सुबह का भूला
मैं घर का वो इंसान हूं,
जिसे मां नहीं जिम्मेदारी जगाती है।
काम पर जाने पर तनख्वाह कम,
पर मुस्कुराहट लाती है।
अपने पसीने कि कमाई को मैं
इस तरह बरबाद कर रहा हूं,
जिस तन से कमाया है ,
तनख्वाह उसी तन पर लग जाती है ।
मैं हूं जिम्मेदार माना,
मगर इसका मुझे कोई मलाल नहीं है ।
बली का बकरा तो हूं ,
करने वाला कोई हलाल नहीं है।
खुद को मजबूर समझ कर ,
मजबूती के साथ समझोता
कर लिया है कि तू जरूरी तो है
मगर फिलहाल नहीं है।
कभी कभी लोगो में बैठकर ,
घर का मुख्य भी शराब पीता है।
वो भटकाते है पीने को,
और पीकर शराब वो मर के जीता है।
कुछ लोगों कि मंडली होती है,
जिनका कहना है कि तेरे घर में
कोई और भी है जो कमा सकते हैं,
तू अकेला क्यों रीझता है।
बस इसी से घर में झगडा शुरू,
तू तू मैं मैं होने लगी।
इसे देखकर बेचारी मां
कोने में चुपके से रोने लगी।
सुबह पापा ने माफी मांगी
और रात में भटक गया था
लोगो का गुस्सा घर में ,
किया ये गलती कैसे होने लगी।
सुबह का भूला घर आए
तो उसे भूला नहीं कहते हैं।
मैं शाम का भूला हूं
क्या फिर से साथ रहते हैं।
जिम्मेदार इंसान को भड़का हुआ
देखकर कवि
इंसान