"स्त्री"
"स्त्री"


तुम्हें राज्य *करने का
अधिकार दिया था मैनें
मान रही थी सारे हुक्म
तुम्हारी छाया के नीचे
जकड़ गया था
मेरा सम्मान
बिना करवट लिये
प्रेम नर-नारी के
एक युद्ध,आदर्शों के,
भरम*के,कल्पना और विलास के
नष्ट हो जाता है दुर्बल
जीत ही जाता है बलवान
बुद्धि भी प्रबल हो जाती है
इच्छा शक्ति के साथ
पति और पिता के कर्तव्य
फिर
और क्या काम पुरुष के
बन्द हैं दरवाजे
कैसे रोकूँ
आहट तुम्हारी हिंसात्मक प्रव्रति* को
कोशिश है मेरी बार-बार
अंकुरित होने के लिये
मगर, काट दिया है तुमने
जड़ को मेरी
सूख गई हूँ मैं..... मेरा अस्तित्व
सूखा रेगिस्तान है
जिंदगी मेरी,
फिर भी ,झाँक रहा था
एक साया.....सम्मान मेरा
अहिल्या हूँ.... सीता हूँ... द्रौपदी भी हूँ
क्रोध मत दिलाओ
वरना,गुम जाओगे तुम
खो जायेगा बुनियाद
और उस वक्त करवट ले रहा होगा
अन्य एक नया युग!