सफर -ए -इश्क
सफर -ए -इश्क
बड़ा रदीफ काफिये की बात करता था,
वो शख़्स तो मेरे साथ बहर तक न चल पाया ....
मुझसे बिछडकर जन्नत को जा रहा था ,
अकेला तो वो शहर तक न चल पाया ....
मेरा कुसूर इतना सा है कि
मै दिल लगाकर के अपना दिमाग लगाना भूल गया
सो फिर यूंहुआ कि मेरा सफर-ए-इश्क ,
उसके जुल्फोंं कि लहर तक न चल पाया ....
खैर , रातभर रस्म-ए-वफा मे सो चुका वो शख़्स
सुबह होते ही मुकर गया !
इश्क का हाथ पकडकर तो वो भी दोपहर तक न चल पाया .!

