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ravindra kumawat

Others

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उगा था इक नया सवेरा ...

उगा था इक नया सवेरा ...

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उगा था इक नया सवेरा 

नई किरण भी छाई थी ,

उम्मीदों से भरी सुबह और 

लम्बी सी परछाई थी ... 


आशा थी और भूख भी 

उमंग दिलों में छाई थी ,

अच्छाइयों के ढेर उगे थें 

जन-जन में खुशहाली भी आई थी ...


अपना सा लगता था कुछ 

कुछ परायों की सी हवा भी खाई थी ,

बुराइयों के साथ उठ-बैठ थी 

जन-जन की तो हानी थी ...


आये थे प्रलय भयंकर 

जान-माल की हानी थी ,

अपनों को छिना था जिसने 

पैसों कि की हानी थी ...


राजनीति की हवा चली थी 

मौसम की भी अपनी मनमानी थी ,

अत्याचार भी हुआ जगत में 

द्वेष की सुनामी थी ...


हुंकार उठी थी इन्साफ की 

बुराई तो पानी-पानी थी ,

जो बीत गया वो भुला दिया 

पर, याद उसी की आनी थी ...


उगा था इक नया सवेरा 

नई किरण भी छाई थी ,

उम्मीदों से भरी सुबह और 

लम्बी सी परछाई थी ...


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