उगा था इक नया सवेरा ...
उगा था इक नया सवेरा ...
उगा था इक नया सवेरा
नई किरण भी छाई थी ,
उम्मीदों से भरी सुबह और
लम्बी सी परछाई थी ...
आशा थी और भूख भी
उमंग दिलों में छाई थी ,
अच्छाइयों के ढेर उगे थें
जन-जन में खुशहाली भी आई थी ...
अपना सा लगता था कुछ
कुछ परायों की सी हवा भी खाई थी ,
बुराइयों के साथ उठ-बैठ थी
जन-जन की तो हानी थी ...
आये थे प्रलय भयंकर
जान-माल की हानी थी ,
अपनों को छिना था जिसने
पैसों कि की हानी थी ...
राजनीति की हवा चली थी
मौसम की भी अपनी मनमानी थी ,
अत्याचार भी हुआ जगत में
द्वेष की सुनामी थी ...
हुंकार उठी थी इन्साफ की
बुराई तो पानी-पानी थी ,
जो बीत गया वो भुला दिया
पर, याद उसी की आनी थी ...
उगा था इक नया सवेरा
नई किरण भी छाई थी ,
उम्मीदों से भरी सुबह और
लम्बी सी परछाई थी ...
