समय चक्र
समय चक्र
जीवन एक सूनी किताब थी,
तुम आ गए
एहसासों को तुम्हारा सहारा
मिला
और जिंदगी के कोरे कागज़ पर
ख्वाहिशों की लड़ी बन
उतरने लगे
मेरे मन उपवन में प्रेम पपिहा बन
चहकने लगे
तुम्हारे अधरों की मुस्कान
आँखो की गहराई ने जाने
कितनी बार डुबोया है मुझे
मेरा हाथ पकड़ तुम प्रेम पथ
पर चलने लगे
मैं बेफिक्र तुम पर सर्वस्व
न्योछावर कर तुम संग
बढ़ती गई
तुम्हारा वो हँसना और हँसाना
जैसे चाँद तारों का झड़ना था
हृदय आंचल में चुन लेना चाहती थी
मन को तुम पर मिटने
का अरमान मिला
खुश थी प्रेम को पहचान
मिली
मन मंदिर में तुम्हारी प्रतिमा
को गढ़ लिया था
तुम मिले एक नई रोशनी मिली पर !
प्रेम ने चलना सीखा ही था
सीप मे मोती बने ही थे
कि ना जाने कौन सा तूफ़ान उठा
मैं प्रेम को समेट नहीं पाई
उसके उपमान बदल गए
प्रेम तुम्हारा छिटकने लगा
और तुम कई टुकडों में बिखर गए
छा गई हमारे बीच दूरियाँ
प्रेम बिखरता गया और
कमजोर होता चला गया
अच्छा लगता है जब तुम
सब का ख्याल रखते हो
अपने में समेट सबको सहारा देते हो
पर मैं पूछती हूँ क्या यही प्रेम हैं ?
शायद नहीं !
अपने आप से पूछो
बिखरने में गहराई कहाँ !
एक बार जरा इतिहास में देखो
जो प्रेम की मिसाल बने
थक गई मैं तुम्हे समझते और दुरह पर
चलते चलते
अब प्रेम मेरा समर्पण और त्याग है
जहाँ ना आशा ना निराशा
बंधन मुक्त, शब्दों से परे
असीम अनुराग है !