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Ratna Kaul Bhardwaj

Tragedy

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Ratna Kaul Bhardwaj

Tragedy

समाज के हत्यारे

समाज के हत्यारे

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यूं तो हम आज़ाद है आसमान में परिंदों की तरह 

पर समाज को नोंचने कितने घूमते हैं दरिंदो की तरह 


हत्यारे केवल वो नहीं जो थामे हैं तलवार हाथों में 

मुँह पर हंसी रखते हैं कितने, ज़हर भरा है बातों में  


हत्यारे के कई रूप अनेक कोई जिस्म फरोशी करता है 

हथियारों के ज़ारीख़े सजाता है आतंकी को पालता है  


कोई बच्चों से बचपन छीनता है कोई बहिन बेटी बेचता है 

यह संसार कैसा है जहाँ हत्यारा नारी की कोख उझाडता है 


सफ़ेद टोपी में दिखते है , लम्भी दाढ़ियों में करते व्याभिचार

हर नुक्कड़ पर यह ज़ालिम न जाने कौन सा करते हैं व्यापार


बात यहाँ पर ख़त्म नहीं , जेलों से हकूमत चलाते हैं 

अरे इंसान क्या , वह देश को भी न कभी बखश्ते हैं 


इस देश में किसान रोता है , गरीब भूख से मरते है 

है नेता रुपी हत्यारे भी जो तिजोरियां अपनी भरते हैं


आंतकी को भुलाते है शान से हत्या उससे करवाते हैं

यह कैसा समाज, हत्या के पीछे उनके ही हाथ होते हैं  


हत्यारे का कोई देश नहीं,ज़मीन नहीं, न धर्म है न कोई दीन 

वह अँधा है तन मन से बस हरे नोटों पर उसका है यकीन 


कब इंसान जागेगा और कब यह दुनिया भी सुधरेगी  

कब मानवता का युग आएगा ख़त्म हो दानवों की बस्ती।             


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