सीता की अग्नि-परीक्षा
सीता की अग्नि-परीक्षा
असाधारण जन्म पाकर भी
कहो क्या मैंने था पाया ?
पृथ्वी से निकलकर, पिता
जनक, पति राम सा पाया।
महलों में पली सुकुमारी थी
भाग्य जोगन का था पाया
जो धनु, धुरंधर हिला न पाये,
उसको मैंने उंगली से उठाया।
शील, गुण, रूप से भरी
सदा पतिव्रता धर्म निभाया।
थे विष्णु अवतार राम तो,
मैं भी थी लक्ष्मी रूपा काया
चौदह वर्ष वनवास में भी
पति संग निज पाँव बढ़ाया।
क्या गलती थी मेरी इसमें,
एक छली -बली हर लाया।
पति-विलग हो राक्षस कुल में
बंदिनी बन समय बिताया।
पत्नी-विलग रहे तुम भी लेकिन
किसी ने तुम पर न प्रश्न उठाया।
देनी पड़ी केवल मुझको ही
क्यों अग्नि परीक्षा समझ न आया
पति होने का कैसा धर्म निभाया ?
