मानो या न मानो
मानो या न मानो
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बहरूपिये सा हर पल
रूप नया धर लेती है।
हर रंग नया उसका,
सबका मन
हर लेती है।
क्या नाम दूँ उसको,
बच्चों की तरह वो
ज़िद पर भी आ जाती है।
खेल-तमाशे कितने ही
दिखाती है।
हार कर बैठ जाऊँ,
तब सखी बन गले
लगा लेती है।
मानो या ना मानो,
ये जीने की राह
दिखा देती है।
यादों के मोती भी बड़ी,
खूबसूरती से पिरोया
करती है।
हम सो भी जाएं लेकिन
ये जिंदगी है
कहाँ सोया
करती है!!