अंतहीन प्रतीक्षा 'प्रेम'
अंतहीन प्रतीक्षा 'प्रेम'
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प्रेम की प्रकृति मैं
कभी समझ ही नहीं
पायी हूँ
एक पल को मिलना
फिर खो देना अपने
आप को ही
कभी फूलों सी कोमलता
तो कभी आग की तपिश
एक अनजान व्यक्ति का
जीवन में आना, फिर
बन जाना सबसे प्रिय
लेकिन क्या उसको
पा लेना ही परिणति
होती है प्रेम की?
बन जाती है कभी-कभी
यह एक अंतहीन प्रतीक्षा
जन्मों की।
जूझना पड़ता है खुद से
उसे भूलने के द्वंद्व में
स्वयं को बचाने और
उन यादों के घेरे से खुद को
बाहर लाने के लिए भी।