ये कविताएं
ये कविताएं
कभी लगता है मानों ये कविताएं
कविताएं नहीं
मेरी सहेली हैं
बचपन से ही मेरे संग-संग
लुका-छिपी खेली हैं
मेरे मन का भी हर भाव
ज्योंगर्म खर हुई रोटी पररखे
मक्खन की तरह पिघलकर
खुद ब खुदउसमें समाहित होता चला जाता है
शब्द दर शब्द सहजता से
कविता में ढलता चला जाता है
बड़ी निश्छल सीरहती है
मेरे साथ वहन वो सत्कार चाहती है
न वो कोई श्रृंगार चाहती है
श्रद्धा में गुंथे
भाव-पुष्प का इक हार चाहती है।