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Sweta Kumari

Tragedy

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Sweta Kumari

Tragedy

शवों की चीत्कार

शवों की चीत्कार

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मुझे आज भी याद है वो मंजर,

जहाँ की जमीन थी बिल्कुल बंजर,

फिर भी उठ रहा था,चीत्कारों का बवंडर,

मार गये मुझे अपने विश्वासघात का खंजर,

एक बार झाँककर भी नहीं देखा हमारे अंदर,


फेंक दिया जहाँ-तहाँ कूड़े के ढेर पर,

चील,कुत्तें नोंच-खसोंट बना रहें अस्थि पंजर,

तुम्हें पता है अपमान सीना छलनी कर जाती है,

फिर भी बेमुरादों को लाज-शरम नहीं आती है,


जीवित थे तो क्या खाक थी चिंता हमारी,

लावारिस छोड़ गये,क्योंकि निगल गई महामारी,

ऐ मेरे मालिक, ये तूने कैसी सृष्टि बनाई,

मानव के अंदर दिल ही न लगाई,

फेर ली तूने भी नजरें और जमकर कहर बरपाई,


कहने को एक सफेद कफन थी हमारी,

वो भी बेच खा गए व्यभिचारी,

कहीं अधजला हूँ तो कहीं सड़ा हूँ,

इसलिए अपना जी करता कड़ा हूँ,


सच कहता हूँ, एक दिन ऐसा आएगा,

न कहीं सड़ेगा, न कहीं बहेगा,

मानव को मारकर मानव ही खाएगा,

ऊपरवाले और समाज से नहीं है हमारी पुकार,

ये है हम शवों का विदीर्ण हृदय चीत्कार।



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