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Sweta Kumari

Abstract

4.5  

Sweta Kumari

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श्मशान की वेदना

श्मशान की वेदना

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यूँ चलते-चलते एक वीरान सी जगह आई

कुछ कदम चलकर देखा, कट-कट की ध्वनि दी सुनाई,

आग जल रही थी लकड़ियाँ उछल रही थी,

अग्नि के प्रचंड रुप में मानव अस्थियाँ गल रही थी,


अचानक किसी के रोने की आवाज आई,

मैंने पूछा-कौन हो?क्या है कठिनाई,

श्मशान नाम से उसने अपनी पहचान बताई,

पूछा, कारण क्या है रोने का ये तो बतलाओ,


बताऊँगा पहले तुम मेरे पास आओ,

डर लगता है तुम्हारे पास आने से

कहीं अस्तित्व न जल जाये श्मशान में जाने से,

क्यों डरते हैं सब श्मशान में जाने से,


यही सवाल है मेरा मानव और ऊपरवाले से,

इस संसार में रहते हुए क्यों मैं घुट-घुट जीता हूँ,

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मृत्युपरांत मैं ही कंचन काया करता हूँ,

मैं सबको समान दृष्टि से देखता हूँ


फिर भी घृणा और तिरस्कार पाता हूँ,

जो मानव मुझपर तोहमत लगाते हैं,

अंत में मेरी ही गोद में समा जाते हैं,

फिर भी बेरुखी दिखा जाते हैं


मुहब्बत का चिराग रौशन नहीं होता मेरे लिए,

काश कोई मर मिटने की तमन्ना रखता मेरे लिए,

हे विधाता ! तुझे जरा भी दया न आई,

मेरे लिए तेरे हृदय की प्रीत हो गई पराई,


तुने मुझे श्मशान बनाया चलो कोई बात नहीं,

ना ही अपनापन जताया,फिर भी मैं निराश नहीं,

एक बात कहता हूँ मैं गर्व से सीना तान,

दूजा कोई बन जाए श्मशान ऐसी किसी की औकात नहीं।


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