वीरान-सी जगह
वीरान-सी जगह
आँखें बंद करके ज्यों कल्पना में डुबकी लगाई,
स्वयं को वीरान-सी जगह में पाई,
कँकरीले पत्थर के टुकड़े जमीन पर थे पडे़,
और खुले आसमान थे उस पर अड़े,
कँटीली झाड़ियाँ थी, थे सिर कटे पेड़,
मनचली हवाएँ लगा रही थी ऐड़,
दुर्गम थी वहाँ की पहाड़ियाँ,
शायद कर रही हो किसी के आने की तैयारियाँ,
खंडहर थे जीर्ण-शीर्ण,
जैसे चुकाना हो अपने का ऋण,
डटकर खड़ी थी विशालकाय दीवार,
रौशनी का बस कर रही इंतजार,
रात्रि की आई घनी ऐसी बेला,
झींगुर सो रही हो चादर फैला,
चारों ओर थी सन्नाटा छाई,
उम्मीद की किरणों के साथ सुबह की घड़ी आई,
सबने कहा,वीरानता जीवन का अंत होती है,
मैंने देखा, अंत से ही सृजन आरंभ होती है।
