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Nalanda Satish

Abstract Tragedy

4  

Nalanda Satish

Abstract Tragedy

शर्मिंदा

शर्मिंदा

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न छूने की मजबूरी किसी अपने की राहें रुखसत होने के बाद

वक्त खुद शर्मिंदा है इस भयावह अवसर की आपदा पर


चौड़ी होती सड़कों ने बलि ले ली घने छायादार पेड़ो की

शर्मिंदा है गाँव खेत खलिहान इस मुंहबोले विकास पर


छालों के जूते पहनकर चलते हैं यहां मायूस मजदूर मज़लूम 

शिकायत नहीं की अंगार उगलती रास्तों से  सिसकती बेवफाइयों ने पर


मौत उड़ रही है तितलियों जैसी परियों के शहर में

कतार में इंतजार करती लाशों ने बड़ी हलचल मचायी मरघटों पर 


इन लड़खड़ाते पैरो ने नापा है सदियों का सफर

तलवारों से ज्यादा म्यान डराने के काम आती है रखना खयाल पर


जिंदगी सस्ती न थी 'नालन्दा' पहले कभी इतनी

न जाने किसका मुँह देख आये थे हम सुबह सवेरे उठने पर



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