श्रीमद्भागवत -९९; भवाटवी का स्पष्टीकरण
श्रीमद्भागवत -९९; भवाटवी का स्पष्टीकरण
शुकदेव जी कहें, हे राजन
सत्वादि गुणों के भेद से
देहाभिमानी जीवों के द्वारा
शुभ, अशुभ कर्म हैं होते।
उन कर्मों के द्वारा ही प्राप्त हों
नाना प्रकार के शरीर जीव को
मन और पांच ज्ञानेन्द्रियां, छः द्वार से
शरीर और संसार का अनुभव हो।
उनसे विवश होकर ये जीवन समूह
मार्ग भूलकर भटकता वन में
संसार वन में पहुँच जाता वो
श्री हरी की ही माया से।
धन के लोभी जो बनजारे हैं
उन्हीं के समान भटकता फिरता
अपने शरीर के किये कर्मों का
फल उसे है भोगना पड़ता।
अनेकों विघ्नों के कारण वहां
व्यापार में भी सफलता न मिले
तो भी श्री हरी और गुरु के
मार्ग का वो अनुसरण न करे।
मन सहित ये छः इन्द्रियां
कर्मों की दृष्टि से समान डाकुओं के
कष्ट उठाकर जो धन कमाता
उस को हर लेती हैं छहों ये।
जिस मनुष्य के मन वश में न हो
बुद्धि विवेकहीन हो जाती
विषयभोगों में फंसाकर ये
इस प्रकार उसे जकड़ है लेती।
कुटुम्भी, स्त्री, पुत्रादि जो रहते
संसार वन में उस के साथ में
वो भी उस का धन छीन लें
समान भेड़िओं और गीदड़ों के।
गृहस्थ आश्रम में आसक्त व्यक्ति को
दुःख देते चोर, कुत्ते आदि हैं
डाँस, मच्छरों से नीच पुरुष को
क्षति पहुँचती ही रहती है।
कभी इस मार्ग में भटकते
असत्त इस मृत्युलोक को
अविद्या, वासना और दूषित चित से
सत्य समझने लगता है वो।
खान, पान और स्त्री प्रेम में
फंसकर मृगतृष्णा के समान वो
मिथ्य विषयों की तरफ दौड़ता
न छोड़े वो इन व्यसनों को।
कभी घर, अन्न जल, घन आदि में
ये समूह अभिनिवेश करे
संसार में इधर और उधर
दौड़ धूप करता वो रहे।
स्त्री गोद में बैठा लेती जैसे
आंधी आँखों में धूल झोंकती
तब वो कोई विचार न करे
सत्पुरुषों की मर्यादा का भी।
उल्लू, झींगुरों के शब्द की तरह
शत्रुओं और राजा की वाणी भी
कठोर लगे, दिल को दहलाती
कानों और मन को व्यथा है देती।
पूर्व पुण्य क्षीण हो जाने पर
मुर्दे समान वो हो जाता है
पापवृक्षों समान पुरुषों का
वो तब आश्रय लेता है।
बुद्धि बिगड़ जाती है उसकी
कभी असत पुरुषों के संग से
सुखी नदी में तब गिरकर वो
फंसे दुःख देने वाले पाखण्ड में।
दूसरे से जब अन्न न मिले
पिता पुत्रों को भी न छोड़ता
जिसके पास थोड़ा सा अन्न भी
उनको वो खाने को दौड़ता।
दावानल समान प्रिय विषयों से
पहुँचता है वो दुखमय घर में
शरीर की आग भड़कती है कभी
इष्टजनों के वियोगादि से।
कभी काल समान राजकुलरूप राक्षस
धन रुपी प्राणों को हरता
मरे हुए समान ही तब
जीव ये निर्जीव हो जाता।
अत्यंत असत सम्बन्ध जोड़े ये
पिता पितामह आदि जो
क्षणिक सुख का अनुभव ये करता
सत्य मानकर इन संबंधों को।
गृहस्थ आश्रम में प्रवृत देखकर
कर्म करते बाकी लोगों को
देखा देखि उन सब कर्मों को
पूरा करने का प्रयत्न करे वो।
तरह तरह की कठिनाईयों से
वो जीव कलुषित होकर तब
दुखी होता जैसे पहुंचे कोई
काँटों भरी भूमि में जब।
पेट की ज्वाला से अधीर हो
कभी भड़के अपने कुटुम्भ पर
मृत हो जाये कभी निद्रारूपी
अजगर के चंगुल में फंसकर।
अज्ञानवश घोर अंधकार में
डूबकर वो सूखे वन में
जैसे फ़ेंक दिया हो किसी ने
मुर्दे समान सोया पड़ा रहे।
किसी बात की सुध नहीं रहती
उस समय मृतसमान शरीर को
दुर्जनरूप काटनेवाले जीव कभी
काटें उसे, तिरस्कार करें वो।
गर्वरूप दांत जो इसके
दूसरों को जिससे काटे वो
वो सारे टूट जाते हैं
नींद नहीं तब आती इसको।
विवेक शक्ति क्षीण हो जाती
अशांत तब होता बहुत ये
अंधे की तरह तब गिर जाता है
नरकरूप अंधे कूप में।
विषयसुखरूप मधु कणों को ढूँढ़ते
जब वह लुक छिप कर कभी
उड़ाना चाहे परस्त्री, पर धन को
उसको पकड़े उन सब का स्वामी।
तब उसको वो स्वामी मार दे
या राजा उसका फिर वध करे
फिर वो नरकों में गिरता है
इस सबका दंड उसे मिले।
यदि किसी तरह राजादि के
बंधन से वो छूट भी जाए
अन्याय से प्राप्त उस स्त्री या धन को
कोई दूसरा व्यक्ति ले जाए।
तीसरा कोई व्यक्ति वहां पर
दूसरे व्यक्ति से वो झटक ले
एक पुरुष से दुसरे पुरुष तक
जाते रहते हैं सब भोग ये।
कभी शीत, वायु आदि दुखों को
निरूपण करने में समर्थ न हो
तब अपार चिंताओं के कारण
बहुत दुखी हो जाता है वो।
कभी कभी लेन देन में
थोड़ा सा भी वो धन चुराता
इस व्यवहार का पता लगते ही
उससे उसका वैर हो जाता।
शुकदेव जी कहें, हे राजन
अनेकों विघ्न हैं इस मार्ग में
सुख, दुःख, रागद्वेष, भय, शोक
मोह, इर्ष्या, मृत्यु आदि ये।
इनमें भटका हुआ जीव ये
देवमायारूपिणी स्त्री के
बाहुपाश में पड़ कर कभी
विवेकहीन हो जाता है ये।
भवन बनवाना उसी के लिए
इसी चिंता में ग्रस्त रहे वो
पुत्र, पुत्री आदि में चित फंसा रहे
अन्धकार में गिर जाता वो।
कालचक जो हरि का आयुध है
सबका ये संहार करता है
गति में बाधा न डाल सके कोई
ये निरंतर चलता रहता है।
पाखंडियों के आश्रय में रहता
भगवान विष्णु को छोड़ मनुष्य ये
यज्ञ पुरुष की आराधना न करता
कर्मशून्य कुल में प्रवेश करे।
वहां वानरों के समान ये केवल
कुटुम्भ पोषण में है लगा रहता
उनके स्वभाव अनुसार ही ये
स्त्री सेवन ही करता रहता।
बिना रोक टोक स्वछन्द विहार करें
इसकी बुद्धि हीन हो जाती
विषय भोगों में फंसकर रह जाता
मृत्यु भी इसे याद न रहती।
घरों में सब सुख मानकर
वानरों की ही भांति ये
विषय भोगों में लिप्त हो जाता
आसक्त रहे स्त्री पुत्र आदि में।
इस तरह सुख दुःख भोगकर
रोग रूप गुफा में फंसकर
मृत्युरूप हाथी जो रहता
उस हाथी से रहे वो डरकर |
शीत, वायु आदि दुखों को जब
निवृत करने में असहाय हो जाता
मन में व्याकुल और आधीर हो
वो तब थोड़ा खिन्न हो जाता |
धन नष्ट हो जाने से कभी
सामग्री रहे न खाने, सोने की
अभीष्ट भोग न मिलने से
फिर वो करता फिरता चोरी |
इससे उसे जहाँ तहाँ फिर
अपमानित होना पड़ता है
कभी अपने सम्बन्धिओं से बिछुड़ कर
व्यर्थ में ही शोक करता है |
किसी से वियोग की आशंका में
हो जाता है भयभीत ये
किसी से झगड़ा करने लगे
रोने लगता ये विपत्ति में |
कभी कोई अनुकूल बात हो
प्रसन्नता से फूले न समाये
साधुजन की सेवा न करे
वो भी इसके पास न आएं |
जहाँ से यात्रा आरम्भ हुई इसकी
जो अंतिम अवधि है इस मार्ग की
नहीं है लौटकर आया
उस परमात्मा के पास ये अभी |
शुकदेव जी कहें, हे राजन
भरत जी ने हरि में अनुरक्त हो
त्याग दिया था युवावस्था में
स्त्री, पुत्र, मित्र आदि को |
उचित ही था ये उनके लिए क्योंकि
जिन का चित लगा हरि सेवा में
महापुरुष जो अनुरक्त भगवान में
मोक्ष भी तुच्छ है उनके लिए |