शबरी
शबरी
दंडकारण्य में एक आश्रम
ऋषि मातंग वहा रहते थे
भीलनी एक शिष्या उनकी
सब शबरी उसको कहते थे।
आश्रम का कोई भी काम हो
सफाई करती, पानी भरती
दिन-रात प्रेम भाव से
ऋषि की थी वो सेवा करती।
शरीर छोड़ने लगे ऋषि जब
क्या है हुक्म, ये पूछा मन में
राम आएंगे तुमसे मिलने
प्रतीक्षा करो तुम इसी वन में।
राम भजन नित्य वो करती
रोज सुबह जंगल में जाती
शायद आज आएंगे राम
उनके लिए फल तोड़ के लाती।
उस वन में जब पहुंचे थे
लक्ष्मण के संग राम
ऋषि मुनि सब राह तक रहे
पहले पहुंचे शबरी के धाम।
देख राम को, आंसू टपके
एक पल को वो ठिठक गयी थी
आज लाई थी बेर तोड़ कर
चरणों से वो लिपट गयी थी।
हर बेर को चखती थी वो
फीका बेर ना हो कहीं
मीठा बेर राम को देती
फीका फ़ेंक देती वहीँ।
रामचंद्र तो प्यार के भूखे
कहते बेर कभी चखे न ऐसे
प्यार से मीठी कोई चीज ना
तुमको बतलाऊँ मैं ये कैसे।
सुध-बुध अपनी खो बैठी वो
प्रभु से मिलने का नशा था
ये भक्ति और अटूट प्रेम था
उसकी रग रग में बसा था।
राम हुए संतुष्ट और बोले
क्या चाहिए तुमको हे माता
अपनी भक्ति मुझको दे दो
मुझको अब कुछ और न भाता।
नौ प्रकार की नवधा भक्ति
ऋषिओं ने है बतलाई
तुम तो एक श्रेष्ठ ज्ञानी
सब की सब तुममे पाई।