खण्डित
खण्डित
और कब तक अपनी लाश को
कन्धों पर उठाकर भागते फिरोगा
हर एक कदम मौत की तरफ़ है
ये झूठला तो नहीं सकता
किसी ने क्या खूब कहा है
दिन पराया रात अपना
कब तक रात के इंतजार में
रुखसत हुए पलों को टटोलता रहोगा
ये हरियाली ये आसमान
तेरे लिए तो है बावरे
कभी जी भर के देखा है तुने ??
वक़्त ही तो नहीं है तेरे पास
मदारी के डमरू के साथ
थीरकते हैं तेरे पैर
फिर भी मानता है तु
अपनी मर्ज़ी का मालिक
तु अभी भी खण्डीत है
पूर्णता से कोशो दूर
फ़ुरसत के दो पल निकाल
अपनी धड़कनों में डुब जा
तू अनंत का एक छोटा सा हिस्सा
उस से भी छोटा तेरा क़िस्सा
अब वक्त ज़ाया ना कर
यक़ीनन तेरे अंदर अजर अमर असीम बसा।