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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -९६ ;राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश

श्रीमद्भागवत -९६ ;राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश

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जड़भरत ने कहा, हे राजन 

तुम अज्ञानी होने पर भी 

तर्क वितर्क पूर्ण बातें कर रहे 

पंडितों के समान ऊपर ऊपर की।


श्रेष्ठ ज्ञानी तुम नहीं हो क्योंकि 

तत्वज्ञानी पुरुष जो होते 

स्वामी सेवक आदि व्यवहार को 

सत्य स्वरूप में स्वीकार न करते।


लौकिक व्यवहार के समान ही 

सत्य नहीं है वैदिक व्यवहार भी 

क्योंकि पूरी अभिव्यक्ति नहीं हुई 

वेद वाक्यों में तत्वज्ञान की।


सत्व, रज या तमोगुण के 

मन जब तक वशीभूत रहता है 

बिना किसी अंकुश में तब तक 

शुभाशुभ कर्म करता रहता है।


ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रिओं से 

कर्म जो करता ये सारे है 

इन्द्रियरूप सोलह कलाओं में 

प्रमुख ये एक मन ही है।


यही कारण होता जीव की 

उत्तमता या अधमता का 

पंडितजन इसे ही कारण मानें 

संसार चक्र या मोक्ष पद का।


विषयासक्त मन जीव को 

संसार संकट में डाल देता है 

विषयहीन होने पर शांतिमय 

मोक्षपद प्राप्त करा देता है।


विषयों, कर्मों में आसक्त हुआ मन 

आशय लिए रहता वृतिओं का 

और उनसे मुक्त होने पर 

अपने तत्व में लीन हो जाता।


पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ 

एक अहंकार, मन की वृतीयां ये 

पांच कर्म, पांच तन्मात्र 

और एक शरीर विषय हैं इनके।


इन विषयों का सत्ता क्षेत्रज्ञ 

आत्मा की सत्ता में ही है 

ऐसा होने पर भी मन से 

क्षेत्रज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं है।


संसार बंधन में डालने वाले 

मन प्रवृत रहे अविशुद्ध कर्मों में 

क्षेत्रज्ञ विशुद्ध चिन्मात्र है 

वृतिओं को देखे वो साक्षी रूप में।


यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा है 

सर्वव्यापापक स्वयंप्रकाश है 

ये अजन्मा है और सबके 

अंतकरण में इसका वास है।


यही भगवान वासुदेव है 

जीवों को प्रेरित करे माया से 

सम्पूर्ण प्रपंच में औत प्रोत ये 

सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप में।


जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा 

इस माया का तिरस्कार कर 

सबकी आसक्ति छोड़कर 

काम क्रोधादि को जीतकर।


आत्म तत्व को जान न ले वो 

और वो ये न समझ ले 

कि मन ही दुःख का क्षेत्र 

तब तक यूँ ही वो भटकता रहे।


क्योंकि शोक, मोह, रोग, राग 

लोभ, भेद, बैर, ममता आदि की 

जो वृद्धि करता रहता है 

वो सिर्फ एक है ये चित्त ही।


तुम्हारा बड़ा बलवान शत्रु 

है ये तुम्हारा मन ही 

और तुम्हारे अपेक्षा करने से 

इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी।


स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है ये 

पर तुम्हारे आत्म स्वरूप को 

इसने आच्छादित किये रखा 

इसलिए अब तुम सावधान हो।


उपासना करो तुम गुरु की 

और चरणों में श्री हरि के 

और इसी को अस्त्र मानो 

मार डालो मन को तुम इससे।



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