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Kusum Joshi

Classics

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Kusum Joshi

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द्रोपदी

द्रोपदी

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महाभारत का कारण थी या,

पतितों का वो तारण थी,

थी वो देवी स्वरुप धरा पर,

ना स्त्री वो साधारण थी,


थी ललाट में अग्नि उसके,

देह बनी अंगारों से,

यज्ञ कुण्ड बन गया गर्भ,

कि जन्म हुआ मंत्रोच्चारों से,


बचपन देखा नहीं कभी पर,

शास्त्रों की वो ज्ञाता थी,

भाग्य लकीर नहीं थी उसके,

पर भारत की भाग्य विधाता थी,


भाग्य और दुर्भाग्य का संगम,

वो एक अलग कहानी थी,

ब्याह हुआ अर्जुन से पर,

पांच पतियों की पटरानी थी,


आत्मजा द्रुपद की थी,

द्रोपदी कहलाई थी,

पांडवों की भार्या बन,

वो कुरुकुल में आई थी,


पर पांडवों ने अभिमान जब अपना,

द्यूत में दांव लगाया था,

माँ समान भाभी को दुःशासन,

केश पकड़कर लाया था,


द्रुपदासुता पाण्डवप्रिया वो,

इंद्रप्रस्थ की रानी थी,

पर द्यूतसभा का दंश झेलती,

ये कैसी व्यथित कहानी थी,


दुर्योधन और कारण के मुख से,

अपशब्द विशिख बन निकल रहे,

ज्येष्ठ वीर विद्वान सभा में,

अधर्म देख खामोश रहे,


भीष्म विदुर का मौन सभा में,

अंत का आरम्भ बना,

पाप के गागर ने छलक कर,

कुरुक्षेत्र को रणभूमि चुना,


अट्टहास कौरवों का उस दिन,

महाभारत को आमंत्रण था,

चीरहरण की कामना करना,

काल के लिए निमंत्रण था,


तन मन से पावन पांचाली,

की गरिमा रणभूमि बनी,

कितने ही तब शीश कटे,

और धरा लहू से लाल सनी,


कारण ना थी द्रुपद सुता,

वो माध्यम बनकर आई थी,

मान और सम्मान से बढ़कर,

धर्म की अधर्म से हुई लड़ाई थी,


नारी की एक क्रोध ज्वाल में,

कितने ही शव भस्म हुए,

कितनी ही पीढियां मिट गयी,

और कितने कुल ख़त्म हुए,


पांचाली के केशों ने जब,

मलिन जनों का रक्त पिया,

पावन फ़िर से हुई धरा और,

महायुद्ध का अंत हुआ।।



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