द्रौपदी
द्रौपदी
यज्ञ कुंड की ज्वाला पावन
प्रकटी एक बाला मनभावन ।
रूप अनूप सुषमा अति भारी
दमके दामिनी ज्यों घन कारी ।।
उद्विग्न द्रुपद पुत्र लालसा में
हुई पुत्री अकिंचन उस आशा में ।
और यज्ञसैनी जैसी निर्मल काया को
किया श्रापित अपनी ही जाया को ।।
बना ये अभिशाप ही जिसका भावी
रहा जो प्रतिपल जीवन पर हावी ।
रही सर्वदा ये निर्दोष कंचन काम्या
कहलाई पांचाली पंचम वाम्या ।।
नियति का है ये खेल निराला
निशा-तिमिर को चीर उजाला ।
हुआ प्रविष्ट एक वीर धनुर्धर
घोषित दुष्कर जीत स्वयंवर।।
दे ना सका जो भार्या का अधिकार
नहिं अनुचित मातृ-वचन का प्रतिकार।
हो गई अस्मिता आज विखंडित हुई
तन्वंगी कांता फिर दंडित ।।
होनहार की कैसी गति निराली
निर्मम निष्ठुर क्रूर कराली ।
बचा ना सकी अबला का सम्मान
भरी सभा में चीरहरण का फरमान ।।
अपनों के बीच हुआ ये अपमान
बना कालांतर में उसका अभिमान ।
खोकर जिगर के टुकडे अपने
संजोए दग्ध हृदय के बिखरे सपने ।।
हैं आज भी दुर्योधन कुटुंब समाज में
दृष्टित करते पंचाली को पर नारी में ।
और छिपाते अपनी कुंठित लिप्सा को
मलिन मायावी कलुषित इप्सा को ।।
जागो हे अग्नि-शयनी अब कृष्णा
व्याप्त जगत में प्रमदा-मान वितृष्णा ।
करो जागृत पुनः सोए पांडु वीरों को
आवाहन विजयी प्रण मुक्त केशों को ।।
चीर हरण पर रुकती नही विभीषिका
जीने का हक छीन रही ये पिपीषिका ।
है आगाज आज फिर महाभारत का
करो दहन कुटिल कौरवी महा-आरत का ।।