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Mithilesh Tiwari

Classics

4.7  

Mithilesh Tiwari

Classics

द्रौपदी

द्रौपदी

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641


यज्ञ कुंड की ज्वाला पावन  

प्रकटी एक बाला मनभावन ।

रूप अनूप सुषमा अति भारी 

दमके दामिनी ज्यों घन कारी ।।

उद्विग्न द्रुपद पुत्र लालसा में 

हुई पुत्री अकिंचन उस आशा में । 

और यज्ञसैनी जैसी निर्मल काया को 

किया श्रापित अपनी ही जाया को ।।

बना ये अभिशाप ही जिसका भावी   

रहा जो प्रतिपल जीवन पर हावी । 

रही सर्वदा ये निर्दोष कंचन काम्या   

कहलाई पांचाली पंचम वाम्या ।।  

नियति का है ये खेल निराला   

निशा-तिमिर को चीर उजाला । 

हुआ प्रविष्ट एक वीर धनुर्धर   

घोषित दुष्कर जीत स्वयंवर।।

दे ना सका जो भार्या का अधिकार 

नहिं अनुचित मातृ-वचन का प्रतिकार।

हो गई अस्मिता आज विखंडित हुई 

तन्वंगी कांता फिर दंडित ।।

होनहार की कैसी गति निराली    

निर्मम निष्ठुर क्रूर कराली ।

बचा ना सकी अबला का सम्मान   

भरी सभा में चीरहरण का फरमान ।।

अपनों के बीच हुआ ये अपमान  

बना कालांतर में उसका अभिमान ।

खोकर जिगर के टुकडे अपने  

संजोए दग्ध हृदय के बिखरे सपने ।।

हैं आज भी दुर्योधन कुटुंब समाज में 

दृष्टित करते पंचाली को पर नारी में ।

और छिपाते अपनी कुंठित लिप्सा को  

मलिन मायावी कलुषित इप्सा को ।।

जागो हे अग्नि-शयनी अब कृष्णा  

व्याप्त जगत में प्रमदा-मान वितृष्णा । 

करो जागृत पुनः सोए पांडु वीरों को 

आवाहन विजयी प्रण मुक्त केशों को ।। 

चीर हरण पर रुकती नही विभीषिका 

जीने का हक छीन रही ये पिपीषिका ।

है आगाज आज फिर महाभारत का 

करो दहन कुटिल कौरवी महा-आरत का ।। 

    


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