STORYMIRROR

Mithilesh Tiwari "maithili"

Abstract

4  

Mithilesh Tiwari "maithili"

Abstract

अंर्तवेदना

अंर्तवेदना

1 min
496


 शान्त समुन्दर जैसा था

 ये अंतर्मन कूल किनारा ।

आया ये बड़वानल कैसा

फूट पड़ी विघटन शूल-धारा ।।


 वैमनस्य विषमताओं का मंथन

 है विषघट में बदल गया ।

 प्रेम सौहार्द समता का चिंतन

 भी स्याह गह्वर निगल गया ।।


 नहीं यहाँ कोई शक्ति-शिवाला

 स्वीकार्य सभी कुछ कर जाए ।

 उत्सर्जित अखिल गर-प्याला

 सहज सरल ही पी जाए ।।


 अब सबको अपने हिस्से का

 गरल स्वयं ही पीना होगा ।

 निज अनापेक्षित जख्मों का

 हिसाब खुद ही रखना होगा ।।


 बहुत हुआ पागलपन का घेरा

 अब इससे तुम्हें निकलना होगा ।

 बुना जो अब तक मकड़जाल डेरा

 विध्वंस उसे करना ही होगा ।।


 बहुत रुला चुके अपनों को

 अब आई तुम्हारी बारी है ।

 बहुत तोड़ चुके सपनों को

 अब नींद तुम्हारी उड़ने वाली है ।।


 होता क्या है मान सम्मान

 नहीं तनिक भी आभास जिन्हें ।

 प्यार मोहब्बत और इमान

 लगते बेगैरत बेईमान उन्हें ।।


 रिश्तों की ' मर्यादा ' की अर्थी

 तो कब का निकल चुकी है ।

 बस कुछ निशां बाकी है फर्जी

 उनको भी अब तृष्णा निगल रही है ।।


 दग्ध हृदय की ज्वाला में

 हो रही भस्म संबंधों की काया ।

 रिश्तों की समरस माला में

 पड़ रही ग्रहण की छाया ।।


हैं उग रही चहुँ-ओर विषम झरबेरी

तो तलवार कलम को बनना होगा । 

काट सके जो कांटों को बिन देरी

ऐसी धार लेखनी में लाना होगा ।।


है वक्त अभी भी संभल जाओ

हो गिले शिकवे भी सच के दायरों में।

अपनी रार को इतना न सतही बनाओ

कि होने लगे प्रतिबिंबित प्रतिमानों में।।



       


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract