मैं पैसा बोल रहा हूँ
मैं पैसा बोल रहा हूँ
मैं हूँ समस्या की जड़ सारी,
समाधान भी मेरा आभारी।
मैं पिघला दू स्वाभिमानी को,
शीश झुकवा दू अभिमानी को।
मेरा खेल बड़ा ही न्यारा है,
हर इंसा को पैसा प्यारा है।
हो जरूरत चाहे या ख्वाहिश कोई,
सबको मैं ही सुलझाता हूँ,
कितनो के यहां ईमान डोले,
सब मैं ही तो बतलाता हूँ।
अजब गजब एक पहली सा,
उलझा कर सबको रखता हूँ,
रोटी कपड़ा और मकां का,
जुगाड़ मैं ही तो करता हूँ।
मायूस पड़े फीके चेहरों पर,
चमक खुशियों की भरता हूँ,
मैं ही तो रिश्तों के हवन कुंड में,
घृत ईर्ष्या का धरता हूँ।
है माया मेरी अपार निराली,
उड़ने को पर दे जाता हूँ,
बशर्ते खुद को भूलो ना तुम
हस्ती धूमिल कर जाता हूँ।
तुम पर ही ये निर्भर करता,
तुम राह कौनसी चुनते हो,
है मेरे तो स्वरूप अनेक,
किस रूप में मुझे तुम बुनते हो।
गोर करना एक बात मेरी,
प्रतिउत्तर तुम क्या पाते हो,
मैं तुम्हें बनाता हूँ ?
या तुम मुझे बनाते हो ?