Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -८७ प्रियव्रत चरित्र

श्रीमद्भागवत -८७ प्रियव्रत चरित्र

4 mins
506


राजा परीक्षित ने पूछा, मुने

प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त थे

कर्मबंधन में बाँधने वाले

गृहस्थाश्रम में रूचि हुई कैसे।


ऐसे महापुरुषों का इस प्रकार

आसक्त होना उचित नहीं गृहस्थी में

मुझे इस बात का बड़ा संदेह है 

वो आसक्त हुए, स्त्री, पुत्रादि में।


उनमें आसक्त रह कर भी उन्होंने

किस प्रकार सिद्धि प्राप्त की

और उन राजा की कैसे

श्री कृष्ण में अविचल भक्ति हुई।


श्री शुकदेव जी कहें, हे राजन

तुम्हारा कथन बहुत ठीक है

जिनका चित हरि चरणों में लगा

कल्याण मार्ग छोड़ते नहीं हैं।


प्रियव्रत बड़े भगवद्भक्त थे

नारद जी की सेवा करते थे

परमार्थतत्व का बोध हो गया

उन्हें सहज ही, छोटी उम्र में।


ब्रह्मसन की दीक्षा लेने वाले थे

उसी समय उनके पिता ने

उन्हें गुणों में संपन्न देखकर

आज्ञा दी पृथ्वी पालन करें।


किन्तु प्रियव्रत समाधियोग से

भगवान के चरणों में समर्पित थे

उलंघनयोग आज्ञा न पिता की

पर वो इसमें न पड़ना चाहते।


सोचें राज्यादि पाकर मैं

कुटुम्भ की चिंता में लग जाऊँगा

पिता आज्ञा को स्वीकार न किया

कि परमार्थ तत्व को भूल जाऊँगा।


अभिप्राय जो जानते सारे संसार का

ब्रह्मा जी को जब पता चला ये

प्रियव्रत की प्रवृति देखकर

लोक से अपने उतर आए थे।


पास पहुंचे प्रियव्रत के 

नारद भी वहां पहले उपस्थित थे 

प्रियव्रत को आत्मविद्या का 

वो उपदेश वहां दे रहे थे। 


नारद जी ने जब देखा ब्रह्मा को 

उठकर वो खड़े हो गए 

स्वयंभू मनु और प्रियव्रत सहित 

ब्रह्मा जी को प्रणाम करने लगे। 


ब्रह्मा जी ने प्रियव्रत को देखा 

इस प्रकार फिर था उनसे कहा 

बेटा, सिद्धांत की बात करूं मैं 

ध्यान देकर मुझे सुनना जरा। 


भगवान हरि की ही आज्ञा का 

हम सब तो हैं पालन करते 

शरीर को हम धारण करते हैं 

उनके बताये कर्म करने के लिए। 


उनकी आज्ञा से कर्मों में लगे रहें 

उनके द्वारा उनकी पूजा करें 

कर्मों अनुसार ही योनि मिले 

उसी अनुसार सुख दुःख भोगा करें। 


मुक्त पुरुष भी शरीर धारण करें 

पर उन्हें अभिमान न होता 

संसार में जो विषय वासना 

वो उनको स्वीकार न करता। 


पुरुष जो हो इन्द्रीयों के वश में 

वन वन भी हो वो विचरता 

मन -इन्द्रियां पीछा न छोड़ें 

जन्म - मरण का भय न जाता। 


बुद्धिमान पुरुष जो होते 

वो जीतकर अपनी इन्द्रीयों को 

आत्मा में रमन हैं करते 

गृहस्थाश्रम का कोई डर न उनको। 


तुमने इन्द्रियां जीत लीं सारी 

हरि चरणों के आश्रित होकर 

आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना 

उनके दिए भोगों को भोगकर। 


शुकदेव जी कहें जब ब्रह्मा जी ने 

प्रियव्रत को इस प्रकार कहा 

सर झुका लिया आज्ञा मानकर 

उनके आदेश को शिरोधार्य किया। 


स्वयभुव मनु ने ब्रह्मा जी की 

सबके साथ मिलकर पूजा की 

ब्रह्मा जी अपने धाम को चल दिए 

प्रणाम करें, प्रियव्रत, नारद जी। 


नारद जी की आज्ञा से फिर 

स्वयम्भुव मनु ने प्रियव्रत को 

सारे भूमण्डल का राज्य दिया 

गृहस्थाश्रम से निवृत हो। 


निरंतर ध्यान करें हरी का 

राजा प्रियव्रत राज्य करते हुए 

उन्होंने फिर विवाह किया था 

विश्वकर्मा पुत्री वर्हिष्मनी से। 


उससे उनके दस पुत्र हुए 

शीलवान वो, उनके समान ही 

उनसे छोटी एक पुत्री हुई 

सुंदर कन्या ऊर्जस्वती नाम की। 


आग्नीध्र, इधमजिह्व, यज्ञवाहु 

महावीर, हरिण्यरेता, धृतपृष्ठ 

सवन, मेघातिथि , वीतिहोत्र 

और कवि, ये थे दस पुत्र। 


रवि, महावीर और सवन ये 

तीनों ही नैष्ठिक ब्राह्मण हुए 

आत्मविद्या का अध्यन किया 

अंत में वो सब सन्यासी हुए। 


प्रियव्रत की दूसरी भार्या से 

तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे 

उत्तम, तामस और रैवत ये 

उन तीनों को नाम दिए थे। 


ये तीनों अधिपति हुए थे 

उनके नाम वाले मन्वन्तरों के 

ग्यारह अबुर्द वर्षों तक शासन किया 

पृथ्वी का तब प्रियव्रत ने। 


सब भोगों को भोग रहे थे 

पर उनमें आसक्त नहीं थे 

हर समय प्रभु का ध्यान करें 

रहें सदा उनकी भक्ति में। 


एक बार उन्होंने देखा 

जब सूर्य परिक्रमा करें सुमेरु की 

पृथ्वी के जितने भाग में जाएं 

प्रकाश है रहता आधे में ही। 


छाया रहता अन्धकार आधे में 

ये बात उन्हें अच्छी न लगी 

तब उन्होंने ये संकल्प लिया 

दिन बनाऊं मैं रात को भी। 


सूर्य समान रथ पर सवार हो 

द्वितिय सूर्य की ही भाँती 

उसके पीछे पीछे प्रृथ्वी की 

उन्होंने सारी परिक्रमा कर डाली।


भगवान की उनपर बड़ी कृपा थी 

उनका प्रभाव भी बढ़ गया इससे 

रथ के पहिये से जो लीकें बनीं 

वो ही सात समुन्द्र हुए थे। 


इससे हुए सात द्वीप पृथ्वी के 

जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश ये 

क्रोंच, शाक और पुष्कर द्वीप 

ये नाम हैं उन सातों के। 


पहले पहले द्वीपों की अपेक्षा 

आगे वाले का परिमाण दूना है 

और जो ये हर एक समुन्द्र है 

पृथ्वी के चारों और फैला है। 


सात समुन्द्र हैं जो इनमें 

अलग अलग जल भरा हुआ है 

खारा जल, इख का रस. मदिरा, घी 

दूध, मठ्ठा और मीठा जल है। 


ये समुन्द्र खाई के समान हैं 

उन सारे सात द्वीपों के 

परिमाण में वो बराबर हैं 

अपने भीतर के द्वीपों के। 


एक एक समुन्द्र जो है ये 

द्वीपों को घेरता है बाहर से 

अलग अलग द्वीपों के लिए 

अलग अलग ही समुन्द्र है ये। 


प्रियव्रत ने सातों पुत्रों को 

एक एक द्वीप का राजा बनाया 

कन्या ऊर्जस्वती का विवाह 

शुक्राचार्य के साथ कराया। 


शुक्राचार्य से ऊर्जस्वती को 

शुक्रकन्या देवयानी हुई थी 

ऐसे गृहस्थी में पड़े हुए प्रियव्रत 

उनके मन में तब सोच हुई थी। 


नारद जी की शरण में एक दिन 

सोचें किस परपंच में पड़ा हुआ मैं 

कहें वो कि धिक्कार है मुझपर 

इन्द्रियों के वश में हुआ मैं। 


श्री हरि की कृपा से उनकी 

विवेकवृति जागृत हो गयी 

गृहस्थाश्रम अभी छोड़ूँ मैं 

ये उन्होंने मन में ठान ली। 


पृथ्वी का भार पुत्रों को देकर 

धारण कर लिया,ह्रदय में प्रभु को 

नारद जी के बतलाये मार्ग का 

फिर से अनुसरण करने लगे वो।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics