सब्र
सब्र
सब्र का क्या इंतिहान वाजिब है
गर्ज का क्या ये मुकाम वाजिब है
देखकर भी गर तड़प जाओगे तुम
मिलना क्या तुमसे कभी वाजिब है !
मान लिय़ा है तुमने कि सब हो
ठान लिय़ा है तुमने कि रब हो
वक़्त का सितम तुमने नहीं देखा है
आयेगा जो, बोलोगे गजब हो !
सब्र का क्या इंतिहान वाजिब है
गर्ज का क्या ये मुकाम वाजिब है
देखकर भी गर तड़प जाओगे तुम
मिलना क्या तुमसे कभी वाजिब है !
मान लिय़ा है तुमने कि सब हो
ठान लिय़ा है तुमने कि रब हो
वक़्त का सितम तुमने नहीं देखा है
आयेगा जो, बोलोगे गजब हो !