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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -६० ;सती का अग्नि प्रवेश

श्रीमद्भागवत -६० ;सती का अग्नि प्रवेश

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मैत्रेय जी कहें, शिव जी ये कहकर 

मौन हुए और उन्होंने देखा 

जाने देने या रोकने से सती के 

प्राणत्याग की है संभावना।


इधर सती जी भी दुविधा में 

बंधुजनों को देखने जाएं 

पर कहीं शंकर इसी बात से 

उनसे रुष्ट ही ना हो जाएं।


कोई बात निश्चित ना कर सकीं 

बंधुओं से मिलने की इच्छा उनकी 

पर इसमें बाधा पड़ने से 

वो बड़ी अनमनी हो गयीं।


स्वजनों के स्नेहवश था उनका 

भर आया ह्रदय, आंसू आँखों में 

भगवन शंकर की तरफ वो देखें 

क्रोध से, रोषपूर्ण दृष्टि से।


सती का चित बेचैन हो गया 

इसी शोक और क्रोध से 

फिर शंकर भगवान को छोड़कर 

घर को चलीं, अपने पिता के।


महादेव के हजारों सेवक 

वृषभराज को आगे करके 

पार्षदों और यक्षों को साथ ले 

उनके पीछे पीछे चल दिए।


बैल पर बैठाया सती को 

और सब चल पड़े वहां से 

और पहुँच गए दक्ष यज्ञ में 

विराजमान सब देव जहाँ थे।


पिता के द्वारा अवहेलना हुई 

सती का कोई सत्कार न हुआ 

ये देख औरों ने भी वहां 

उनको कोई आदर ना दिया।


बस बहनें और उनकी माता ने 

प्रसन्नता से उन्हें गले लगाया 

परन्तु पिता से अपमानित हो 

सत्कार भी ये ना उनको भाया।


उपहार, आसन स्वीकार न किया 

वहां दक्ष शिव का अपमान करें हैं 

तभी उन्होंने देखा यज्ञ में 

शिव के लिए कोई भाग नहीं है।


क्रोध हुआ शिव द्वेष देखकर 

और बढ़ा घमंड दक्ष का 

भूत प्रेत जब मारने दौड़े 

सती ने उनको रोक लिया था।


वहां पर सब लोगों को सुनाकर 

पिता की निंदा करते हुए तब 

क्रोध से लड़खड़ाती वाणी में 

सती ने सभा में कहा था ये सब।


कहा पिता जी, शंकर भगवान से 

बड़ा संसार में कोई नहीं है 

उनके लिए कोई प्रिय नहीं है 

ना उनके लिए कोई अप्रिय है।


आप जैसे लोग जो हैं वो 

दूसरों के गुणों में भी दोष देखते 

महापुरुषों की निंदा करना 

दुष्ट पुरुष ही ये सब करते।


मंगलमय भगवन शंकर से 

आप जो ये द्वेष करते हैं 

आप अवश्य अमंगलरूप हैं 

शिव की जो निंदा करते हैं।


मेरा शरीर उत्पन्न आपसे 

अब मैं नहीं रख सकती इसको 

अपराध किया शंकर का आपने 

इससे ही लज्जा आती मुझको।


धिक्कार है उस मनुष्य को 

महापुरुषों का अपमान करे जो 

आप से मैंने जन्म लिया है 

त्याग दूँगी मैं इस शरीर को।


ये कह कर सती मौन हो गयीं 

उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं 

आचमन कर पीला वस्त्र औढ़ा 

योगमार्ग में स्थित हो गयीं।


सम्पूर्ण अंगों में अग्नि धारण की 

शंकर का मन में चिन्तन किया 

योगाग्नि से शरीर जल उठा 

और उन्होंने देह को त्याग दिया।


देवताओं ने जब ये देखा 

हाहाकार करने लगे वो 

आकाश में भयंकर कोलाहाल हुआ 

पृथ्वी पर भी फ़ैल गया जो।


शिव पार्षदों ने देखा तो 

अस्त्र शास्त्र उन्होंने ले लिए 

दक्ष को मारने के लिए सब 

वहां पर से उठ खड़े हुए।


भृगु ने तब मन्त्र पढ़ा और 

यज्ञकुंड से देवता प्रकट हुए 

शिव पार्षदों को भगाया वहां से 

ऋभु नाम के इन देवताओं ने।


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