एक सार्थक पुस्तक
एक सार्थक पुस्तक
प्यास मुझे भी,
प्यास तुझे भी,
तू मेरी आरजू,
मैं तेरी जुस्तज़ू,
तू मुझमें समा जाये,
मैं तुझमें समा जाऊँ।
तू मेरे आगोश में हो,
मैं तुझसे सँवर जाऊँ।
तू वर्ण, शब्द, वाक्यों का जखीरा
तुझमें गद्य-पद्य का असीम पिटारा
तेरे हाथो से सज,
तेरी आँखों से दिखाऊँ।
तेरे तज़ुर्बे–ज्ञान से,
पल-पल निखर जाऊँ।
उन हसीन पलों को,
थोड़ा और हसीन बनाऊँ।
जिनके होने से तू निखर जाए,
ऐसा एक जहान बसाऊँ।
तू मेरा पाठक, मैं तेरी कविता,
तू मेरी कल्पना, मैं तेरा रचयिता।
हर साहित्य में शब्दोें की अल्पना,
तू चेतन मन, मैं तेरी चेतना
समाहित हूं तेरे जड़ चेतन में,
भले ही एक किताब भर हूंँ,
बिन प्राण के.....
पर जीवित जीवन की हूंँ
एक अभिलाषा।
हाँ! एक पुस्तक ही तो हूंँ।
पर लक्ष्य समेटे हुए अनेकों,
राह दिखाती करोड़ों को,
हां बस इक किताब भर हूं,
संतोष बस इतना कि तेरी–मेरी प्यास,
बुझती तभी
जब तू मुझमें समा जाए और,
मैं तुझमें खो जाऊँ।
एक सार्थक पुस्तक....