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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -५८ ;भगवन शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य

श्रीमद्भागवत -५८ ;भगवन शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य

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विदुर जी ने मैत्रेय जी से पूछा 

दक्ष तो स्नेह करें कन्याओं से 

फिर सती का अनादर करकर 

क्यों द्वेष किया महादेव से। 


शिव शीलवान, वैर रहित हैं 

परम आराध्य देव जगत के 

उनसे भला कोई वैर क्यों करे 

यह चरित्र मुझसे आप कहें। 


मैत्रेय जी बोले एक बार की बात है 

यज्ञ चल रहा प्रजापतिओं का 

बड़े बड़े मुनि एकत्र हुए 

अग्नि आदि, ऋषि और देवता। 


उसी सभा में प्रजापति दक्ष ने 

जिस समय प्रवेश किया था 

सूर्य सामान उनका तेज था 

मुख उससे प्रकाशमान था। 


शिव और ब्रह्मा के अतिरिक्त सब 

सभागन खड़े हुए उन्हें देखकर 

ब्रह्मा को दक्ष ने प्रणाम किया और 

बैठ गए अपने आसन पर। 


महादेव को बैठा देखकर 

उनसे कुछ भी आदर ना पाकर 

व्यवहार ये वो सहन ना कर सके 

बोले थे तब वो क्रोध में आकर। 


समस्त ऋषिगण मेरी बात सुनें 

द्वेषवश ना कहूँ बात मैं 

शिष्टाचार नाते कहता हूँ 

महादेव बहुत निर्लज्ज है। 


पवित्र कीर्ति लोकपालों की 

मिला रहा है ये धूल में 

मेरी कन्या का पाणिग्रहण किया 

इस तरह मेरे पुत्र समान ये। 


मुझे देख उठ खड़ा ना ये हुआ 

ना इसने मुझको प्रणाम किया 

सम्मान तो बहुत दूर की बात है 

वाणी से भी सत्कार ना किया। 


इच्छा ना होते हुए भी 

भावीवश कन्या इसको दे दी 

सदा ये अपवित्र रहता 

मर्यादा तोड़े, है बड़ा घमंडी। 


शमशानों में भूत प्रेतों को 

साथ लेकर ये घूमता रहता 

बाल बिखेरे, नंग धडंग ये 

कभी है हँसता, कभी ये रोता। 


चिता की भस्म लपेटे शरीर पर 

नरमुंडों की माला गले में 

शिव ये बस नाम का ही है 

अमंगलरूप ये है वास्तव में। 


ब्रह्मा जी के बहकावे में आकर 

कन्या को इससे व्याह दिया 

ये सब बुरा भला सुनकर भी 

शिव ने कोई प्रतिकार ना किया। 


निश्चल भाव से बैठे रहे वो 

दक्ष का क्रोध और बढ़ गया 

महादेव को शाप देने को 

जल उन्होंने फिर हाथ में लिया। 


दक्ष कहें ये महदेव जो 

बड़ा अधम है देवताओं में 

देवताओं के साथ में इसको 

यज्ञ का कोई भाग ना मिले। 


सभासदों ने समझाया बहुत और 

ऐसा करने से उन्हें मना किया 

पर दक्ष ने एक ना मानी 

महादेव को शाप दे दिया। 


अत्यंत क्रोध में सभा से उठकर 

दक्ष अपने घर चले गए तब 

नंदीश्वर बड़े क्रोधित हो गए 

शाप के बारे में पता चला जब। 


उन्होंने भी तब शाप दे दिया 

दक्ष को और साथी ब्राह्मणों को 

कहें जो शंकर से द्वेष करे 

तत्वज्ञान से विमुख रहे वो। 


मूर्ख दक्ष ये पशु समान है 

अत : अत्यंत स्त्री लम्पट हो 

और ये इसका जो मुँह है 

शीघ्र ही बकरे जैसा हो। 


पीछे चलते लोग जो इसके 

संसार चक्र में वो पड़े रहे 

पेट पालने के लिए ही 

विद्या, तप, व्रत का आश्रय लें। 


धन, शरीर और इन्द्रीओं के 

सुख को ही ये सुख मानकर 

उन्ही के गुलाम बनकर ये 

भटकें दुनिया में भीख मांगकर। 


नंदीश्वर ने ब्राह्मणों को जब 

इस प्रकार शाप दे दिया 

भृगु जी ने भी फिर पलटकर 

शापरूप ब्रह्मदण्ड उनको दिया। 


भृगु कहें जो शिवभक्त हैं 

या भक्तों के अनुयायी हों 

शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करें वो 

और बहुत ही पाखंडी हों। 


जटा, राख और हड्डीओं को 

जो लोग धारण करते हैं 

शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हों 

जिसमें सूरा ही आदरणीय है। 


भृगु ऋषि का शाप सुना तो 

शंकर जी कुछ खिन्न हो गए 

अपने अनुयायिओं के साथ वो 

उस सभा से घर चले गए। 


प्रजापतिओं का यज्ञ जो चल रहा 

उपासय देवता श्री हरि थे 

समापत होने वाला था थे 

यज्ञ एक हजार वर्ष में। 


प्रजापतिओं ने उसे समापत किया 

गंगा यमुना संगम में स्नान कर 

सब के सब तब प्रसन्नता से 

चले अपने अपने स्थान पर।


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