श्रीमद्भागवत - १२४ ; देवताओं द्वारा दधिची ऋषि की अस्थिओं का वज्र निर्माण
श्रीमद्भागवत - १२४ ; देवताओं द्वारा दधिची ऋषि की अस्थिओं का वज्र निर्माण
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
इंद्र को आदेश देकर श्री हरि
जब चले गए, तो देवताओं ने
दधीचि के पास जाकर याचना की।
दधीचि ऋषि ने उन्हें देखकर कहा
शरीर अनमोल है जीव के लिए
बड़ी असह पीड़ा होती है
बड़ा कष्ट होता मरते समय।
देवताओं ने कहा, हे ब्राह्मण
आप जैसे उदार पुरुष जो
प्राणिओं की भलाई के लिए
निछावर कर सकें किसी भी वस्तु को।
भगवन, संदेह नहीं इसमें कोई
मांगने वाले होते स्वार्थी
उनमें देने वाले की कठिनाई का
विचार करने की बुद्धि नहीं होती।
इसी प्रकार मांगने वाले की
विपत्ति नहीं जानता दाता भी
इसीलिए विपत्ति समझकर
याचना पूर्ण कीजिये आप ही।
दधीति बोले कि आप के मुँह से
धर्म की बातें सुनने को ही
आपकी इस मांग के प्रति
मैंने उपेक्षा दिखलाई थी।
अभी छोड़ देता हूँ मैं
आप लोगों के लिए शरीर को
क्योंकि एक दिन ये स्वयं ही
छोड़ देने वाला है मुझको।
किसी भी प्राणी के दुःख से दुःख का
सुख से सुख का मनुष्य अनुभव करे
क्षणभंगुर है इस जगत में
धन, जन और शरीर ये।
अंत में अपने किसी काम न आये
दुसरे के ही काम आये ये
अपना स्थूल शरीर तयाग दिया
ये निश्चय कर दधीचि ऋषि ने।
दधीति ऋषि की हड्डीओं का
विशवकर्मा ने वज्र बनाकर
दिया इंद्र को, वो लेकर उसको
सवार हुआ ऐरावत हाथी पर।
वृत्रासुर का वध करने के लिए
धावा बोल दिया पूरी शक्ति से
पहली चतृर्युगी का त्रेता युग था
उस वैवस्वत मन्वन्तर में।
देवता -दानव भयंकर संग्राम हुआ
नर्मदा तट पर वो लड़ रहे
अजय थी मृत्यु के लिए भी
सेना देवताओं की उस समय।
असुरों ने जो वाण वर्षा की
छू भी न पायी देवताओं को
आकाश में ही उन्हें काट दिया
डर लगने लगा असुर सेना को।
वृत्रासुर के अनुयायी असुर सब
देखें सब अस्त्र नष्ट हो रहे
उत्साहरहित होकर वो फिर
रणभूमि से भाग खड़े हुए।
वृत्रासुर ने जब ये देखा
सम्बोधित कर कहा असुरों को
भागो मत, संदेह नहीं इसमें कि
मरना है उसे, पैदा हुआ जो।
मृत्यु से बचने का उपाय
विधाता ने बनाया न जगत में
परन्तु अगर स्वर्गादि का सुयश
मिल रहा हो इस मृत्यु से।
तो जो बुद्धिमान पुरुष हैं
क्यों नहीं अपनाएगा वो
स्वर्ग लोक को देने वाली
ऐसी उत्तम इस मृत्यु को।
परम दुर्लभ दो प्रकार की मृत्यु
मानी गयी है इस संसार में
एक जो योगी शरीर त्याग करें
प्राणों को वश में करके।
दूसरी जो होती युद्ध भूमि में
सामने लड़ कर दुश्मन सेना से
ऐसे शुभ अवसर को फिर
तुम लोग क्यों गँवा रहे।