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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१८१; भगीरथ चरित्र और गंगावतरण

श्रीमद्भागवत -१८१; भगीरथ चरित्र और गंगावतरण

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श्री शुकदेव जी कहें, परीक्षित 

गंगा जी को लाने के लिए 

बहुत वर्षों तक घोर तपस्या की 

परन्तु सफलता न मिली उन्हें।


समय आने पर मृत्यु हुई उनकी 

उनके पुत्र दिलीप ने भी 

वैसी की कठिन तपस्या की 

परन्तु असफल रहे थे वे भी।


समयपर उनकी भी मृत्यु हो गयी 

भगीरथ दिलीप के पुत्र थे 

बहुत बड़ी तपस्या की उन्होंने 

गंगा जी प्रसन्न हुईं उनसे।


गंगा जी ने दर्शन देकर कहा 

वर देने आयीं हूँ तुम्हें 

भगीरथ बड़ी नम्रता से बोले 

माता, मृत्युलोक में चलिए।


गंगा जी कहें कि जिस समय मैं 

पृथ्वी पर गिरूं स्वर्ग लोक से 

मेरे वेग को धारण करे जो 

ऐसा कोई तो होना चाहिए।


ऐसा न होने से पृथ्वी फोड़कर 

रसातल में मैं चली जाऊंगी 

पृथ्वी पर न जाना चाहूँ मैं 

इसका अतरिक्त एक और कारण भी।


पाप धोएंगे लोग मुझमें अपने 

फिर मैं उस पाप को कहां धोऊंगी 

हे भागीरथ, इस विषय में 

तुम विचार कर लो स्वयं ही।


भगीरथ ने कहा, माता जिन्होंने 

लोक, परलोक, घर, स्त्री, पुत्र की 

कामनाओं को त्याग दिया है 

अपने आप में शांत जो सभी।


वो ब्रह्मनिष्ठ और सज्जन लोग जो 

पवित्र करने वाले लोकों को 

पापों को तुम्हारे नष्ट कर देंगे 

अपने स्पर्श से परोपकारी वो।


क्योंकि उन सबके ह्रदय में 

भगवान् सदा निवास करते हैं 

और तुम्हारा वेग धारण करें 

भगवान् रुद्रदेव जो हैं।


इस प्रकार कह गंगा जी से 

तपस्या के द्वारा भगीरथ ने 

भगवान् शंकर की आराधना की 

और शंकर प्रसन्न हो गए।


राजा की बात स्वीकार कर ली 

और तथास्तु कहा उन्होंने 

और सिर पर धारण कर लिया 

गंगा जी को फिर शंकर जी ने।


इसके बाद राजर्षि भगीरथ 

त्रिभुवनतारणी गंगा जी को ले गए 

जहाँ शरीर उनके पितरों के 

राख के ढेर बने पड़े थे।


वायु समान वेग से चलने वाले 

रथ पर सवार होकर चल रहे 

आगे आगे चल रहे भगीरथ 

गंगा जी दौड़ रहीं पीछे पीछे।


मार्ग में पड़ने वाले देशों को 

पवित्र करती हुई जा रहीं वो 

डुबोया गंगा सागर पहुंचकर 

जल में, सगर के जले हुए पुत्रों को।


यद्यपि सगर के पुत्रों ने 

तिरस्कार किया था ब्राह्मण का इसलिए 

इसी कारण से भस्म हुए वे 

उद्धार का कोई उपाय न उनके।


फिर भी केवल शरीर की राख के 

स्पर्श होने पर गंगा जल के 

सबके सब सागर के पुत्र 

स्वर्ग में चले गए थे।


गंगा की महिमा अपार है 

निकले ये भगवान् के चरणकमलों से 

इसका जल अमृत सा पवित्र 

संसार का बंधन काट देती ये।


भगीरथ का पुत्र था श्रुत 

श्रुत का पुत्र नाभ था 

नाभ का पुत्र सिन्धुद्वीप 

अयुतायु फिर पुत्र था उसका।


अयुतायु के पुत्र का नाम ऋतुपर्ण 

यह मित्र था नल का 

रहस्य था समझाया नल को 

पैसा फेंकने की विद्या का।


बदले में उससे अशवविद्या सीखी थी 

सर्ववाम था पुत्र ऋतुपर्ण का 

सुदास सर्ववाम का पुत्र था 

और सौदास पुत्र सुदास का।


मदयन्ति सौदास की पत्नी 

सौदास के दो और नाम हैं 

मित्रसह उसका एक नाम और

कल्माषपाद भी उसको कहते हैं।


वशिष्ठ के शाप से राक्षस हो गया वो 

संतानहीन हुआ कारण कर्मों के 

परीक्षित जी पूछें, हे भगवन 

सौदास को शाप क्यों दिया वशिष्ठ ने।


शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित 

एक बार की बात है ये 

राजा सौदास गए शिकार खेलने 

एक राक्षस मारा उन्होंने।


भाई को उसके छोड़ दिया था 

उसने बदला लेने के लिए 

रसोइये का रूप धारण कर 

घर आ गया था वो राजा के।


एक दिन गुरु वशिष्ठ वहां आये 

और जब वो भोजन करने लगे 

मनुष्य का मांस राँघकर 

उस राक्षस ने परस दिया उन्हें।


वशिष्ठ जी ने जब देखा कि 

परोसी न जाने वाली वस्तु ये 

अभक्ष्य है, तब क्रोधित होकर 

शाप दिया राजा को उन्होंने।


कहा राजा, तुम इस कारण से 

अभी ही राक्षस हो जाये 

पर जब उनको पता चला कि 

घृणित काम राक्षस का है ये।


तब उन्होंने उस शाप को 

कर दिया बारह वर्ष के लिए 

उस समय राजा सौदास वशिष्ठ को 

शाप देने के लिए उद्यत हुए।


परन्तु उनकी पत्नी मदयन्ति ने

ऐसा करने से रोक दिया उन्हें 

तब राजा सोचें कि जो जल अंजलि में 

कहाँ फिर अब इसको छोड़ें।

 

विचार किया कि दिशाएं, आकाश, पृथ्वी 

जीवमय हैं सब के सब ये 

ऐसा सोच अपने पैरों पर 

उस जल को डाल दिया उन्होंने।


उसी से उनका नाम मित्रसह हुआ 

और पैर उनके उस जल से 

काले पड गए थे इसीलिए 

कल्माषपाद भी कहते हैं उन्हें।


अब वे राक्षस हो चुके थे 

एक दिन वो थे वन में गए 

वहां देखा एक ब्राह्मण दम्पति 

वन में सहवास कर रहे।


कल्माषपाद को भूख लगी थी 

पकड़ लिया उन्होंने ब्राह्मण को 

वासना ब्राह्मणी की पूरी न हुई थी 

कहने लगी वो कल्माषपाद को।


'' राजन, आप राक्षस नहीं हैं 

पति हैं रानी मदयन्ति के 

और आप हैं वीर महारथी 

राजा एक इक्ष्वाकु वंश के।


ब्राह्मण पति मुझे दे दीजिये 

आपको अधर्म न करना चाहिए 

राजन, आप शक्तिशाली हैं 

धर्म का मर्म भली भांति जानते।


श्रेष्ठ ब्राह्मण का वध करे जो 

श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि आपके जैसा 

किसी प्रकार उचित नहीं है 

साधु समान बड़ा सम्मान है आपका।


परोपकारी, निरपराध और 

श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी ये 

कैसे ठीक समझ सकते आप हैं 

वध ऐसे पति का मेरे।


ये तो गो के समान निरीह है 

फिर भी यदि इन्हें खा लेना चाहते 

तो पहले मुझे खा लीजिये क्योंकि 

जीवित न रहूँ बिना मैं इनके।


ऐसा कह ब्राह्मणी रोने लगी 

परन्तु सौदास तो मोहित शाप से 

ध्यान न दिया उसने प्रार्थना पर 

ब्राह्मण को खा लिया उसने।


ब्राह्मणी को बड़ा शोक हुआ 

शाप दिया राजा को क्रोध में 

कहा, रे पप्पी, मेरे पति को 

ऐसी अवस्था में खा लिया तुमने।


जब मैं काम से पीड़ित हो रही 

इसलिए शाप देती तुम्हें 

तभी तेरी मृत्यु हो जाये 

सहवास करना चाहे जब स्त्री से।


मित्रसह को शाप दे ब्राह्मणी 

साथ ही सती हो गयी पति के 

सौदास शाप से मुक्त हो गया 

बारह वर्ष जब बीत गए थे।


सहवास के लिए सौदास जब 

पत्नी के पास था गया 

पत्नी ने रोक दिया उसे 

ब्राह्मणी के शाप का उसे पता था।


स्त्रीसुख का परित्याग ही कर दिया 

इसके बाद राजा सौदास ने 

अपने कर्म के फलस्वरूप वो 

इस प्रकार संतानहीन ही रहे।


तब वशिष्ठ ने उनके कहने पर 

गर्भ धारण कराया मदयन्ति को 

सात वर्ष का गर्भ हो चूका 

परन्तु बच्चा पैदा न हुआ वो।


तब पत्थर से वशिष्ठ ने 

आघात किया पेट पर उसके 

अश्मक कहलाया बालक हुआ जो 

क्योंकि पैदा हुआ अश्म ( पत्थर ) की चोट से।


अश्मक से मूलक का जन्म हुआ 

स्त्रिओं ने इसे छुपा लिया था तब 

परशुराम जी पृथ्वी को 

क्षत्रियहीन कर रहे थे जब।


इसीको नारिकवच भी कहते हैं 

और कहते हैं मूलक भी इसे 

क्योंकि क्षत्रियहीन होने पर पृथ्वी के 

अपने वंश के मूल वो बने।


मूलक के पुत्र हुआ दशरथ 

दशरथ के एड़विड़ हुए 

एड़विड़ के राजा विशवसह 

राजा खटवांग हुए विशवसह के।


युद्ध में जीत न सके उनसे कोई 

और प्रार्थना पर देवताओं के 

दैत्यों का वध किया उन्होंने 

और देवताओं से जब पता चला उन्हें।


कि उनकी आयु अब केवल 

बाकी है बस दो घडी की 

राजधानी तब छोड़ आये वो 

संसार से विरक्ति हो गयी।


भगवान् में लगा लिया था मन को 

छोड़ दिया था सब विषयों को 

भगवान् की शरण में चले गए 

उन्हीं की भावना में लीन हो।


परीक्षित, अपनी और भगवान् ने 

पहले से ही बुद्धि को उनके 

आकर्षित कर रखा था इसलिए 

वो ऐसा निश्चय कर सके।


अन्तसमय में त्याग कर फिर 

आत्मभाव का, शरीर आदि में जो 

अपने वास्तविक स्वरुप में 

स्थित हो गए थे वो।


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