श्रीमद्भागवत -१७०; बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् का प्रसन्न होना
श्रीमद्भागवत -१७०; बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् का प्रसन्न होना
श्रीमद्भागवत -१७०; बलि के द्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का उसपर प्रसन्न होना
श्री शुकदेव जी कहें, परीक्षित
तिरस्कार किया बलि का भगवान ने
और करना चाहा विचलित धर्म से
परन्तु वे विचलित न हुए थे।
बड़े धैर्य से बोले, आराध्यदेव
पवित्र है आपकी कीर्ति बड़ी
तीसरा पग मेरे सिर पर रखें
असत्य न समझें बात को मेरी।
नर्क जाने से मैं डरता नहीं
न राज्य से च्युत होने से
पाश में बंधने से न डरूं
न डरूं अपार दुःख मैं पाने से।
आप मुझे घोर दण्ड दें
भय का नहीं कारण यह भी मेरे
बस मैं डरता हूँ तो
केवल आपकी अपकीर्ति से।
अपने पूजनीय गुरुजनों के द्वारा
दिया दण्ड अत्यंत वांछनीय है
क्योंकि माता, पिता, भाई मोहवश
वैसा दण्ड नहीं दे पाते हैं।
छिपे रूप में आप हम असुरों को
श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं
अवश्य ही आप इसलिए
पूजनीय हमारे, परम गुरु हैं।
धन, कुलीनता, बल आदि के मद से
जब हम लोग अंधे हो जाते
छीनकर हमारी उन वस्तुओं को
नेत्रदान आप करते हैं हमें।
योगीगण सिद्धि जो प्राप्त करें
वही सिद्धि असुरों को बहुत से
प्राप्त हुई दृढ़ वैरभाव ये
आप के साथ करने से।
जिनकी ऐसी महिमा हो और
अनन्त लीलाएं हों ऐसी
वरुण पाश में बांध रहे मुझे
दण्ड दे रहे मुझे, आप वही।
इसकी न ही मुझे कोई लज्जा
न व्यथा ही किसी प्रकार की
सारे जहाँ में प्रसिद्ध है
मेरे पितामह प्रह्लाद की कीर्ति।
उन्होंने ये निश्चय कर लिया कि
क्या करना है शरीर का
जब यह एक न एक दिन
साथ छोड़ जाता है अपना।
धन संपत्ति लेने के लिए
बने हुए है स्वजन जो
अपना स्वार्थ उनमें क्या है
एक तरह से हैं डाकू वो।
पत्नी में भी क्या लाभ है
डालने वाली जन्म, मृत्यु के चक्र में
मर ही जाना है जब तो
क्या स्वार्थ मोह करने से घर में।
यह निश्चय करके ही पितामह
प्रह्लाद जी ने यह जानते हुए भी
कि आप उनके भाई-बंधुओं के शत्रु
आपके चरणों की शरण ग्रहण की।
उस लौकिक दृष्टि से देखें तो
आप मेरे भी शत्रु हैं
फिर भी विधाता ने लक्ष्मी से अलग कर
आपके पास पहुंचा दिया है।
राजा बलि कहें, हे भगवन
हुआ है यह अच्छा ही
इस प्रकार बलि कह ही रहे थे
वहां आ पहुंचे प्रह्लाद जी।
वरुणपाश में बंधे हुए बलि
उनकी पूजा न कर सके
जैसे वो पहले किया करते थे
बस सिर झुकाकर प्रणाम करें उन्हें।
भगवान को विराजमान देख
पुलकित हो गया शरीर प्रेम से
छलक आये आँखों में आंसू
प्रणाम किया प्रह्लाद जी ने उन्हें।
प्रह्लाद जी कहें, हे प्रभो
इन्द्रपद दिया बलि को आपने
ये ऐश्वर्यपूर्ण पद आज अब
आपने छीन लिया है उससे।
आपका देना जैसा सुंदर है
वैसा ही सुंदर आपका लेना भी
मोहित करे जो,उस लक्ष्मी से अलग किया
मैं समझता हूँ, इसपर कृपा की।
विद्वान पुरुष भी जो होते हैं
लक्ष्मी से मोहित हो जाते
नहीं जान सकते हैं तब वो
वास्तविक स्वरुप को अपने।
श्री शुकदेव जी कहें, परीक्षित
अंजलि बाँध खड़े प्रह्लाद जी
इतने में देख पति को बंधा हुआ
बोलीं विन्ध्यावती, पत्नी बलि की।
कहें प्रभु, क्रीड़ा करने को
रचना की आपने सम्पूर्ण जगत की
अपने को इसका स्वामी मानते
जो लोग कुबुद्धि हैं, वो ही।
तब ब्रह्मा जी ने कहा
देवाधिदेव, छोड़ दीजिये इसे
आपने इसका सर्वस्व ले लिया
अतः दण्ड का पात्र न ये।
भूमि, स्वर्गलोक. अपना सर्वस्व
आत्मा तक समर्पित किया इसने
धैर्य से चयुत न हुआ
बुद्धि स्थिर रही ऐसा करते समय।
सच्चे ह्रदय से कृपणता छोड़कर
जो मनुष्य पूजा करे आपकी
चाहे केवल दूर्वादल से ही करे
उत्तम गति उसे प्राप्त होती।
फिर बलि ने तो त्रिलोकी का दान दिया
दुःख का भागी कैसे हो सकता ये
''जिस पर कृपा करूं, धन छीन लूं ''
ब्रह्मा जी को तब कहा भगवान ने।
क्योंकि अँधा और मतवाला हो
मनुष्य इस धन के मद में
तिरस्कार करने लगता है
मेरा और लोगों का मेरे।
कुलीनता आदि बहुत से कारण
अभिमान, जड़ता उत्पन्न हैं करते
और ये मनुष्य को कल्याण के
समस्त साधनों से वंचित करते।
परन्तु मेरे शरणागत जो होते
नहीं होते मोहित वो इनसे
कीर्ति बढ़ने वाला है यह बलि
दानव और दैत्यों के वंशों में।
जिसको जीतने अत्यंत कठिन है
उस माया पर इसने विजय प्राप्त की
मोहित न हुआ ये दुःख भोगने पर
इसने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी।
मैंने इससे छल भरी बातें की
मन में छल रख धर्म उपदेश दिया
परन्तु इस सत्यवादी ने
नहीं छोड़ा धर्म है अपना।
अतः मैं इसे स्थान देता हूँ
देवताओं को भी जो दुर्लभ है
मेरा भक्त ये इंद्र होगा
सावर्णि मन्वन्तर में।
तब तक विशवकर्मा के बनाये
सुतल लोक में रहे ये
कोई विघ्न न हो वहां इसे
मेरी कृपा दृष्टि बनी रहे।
प्रभु ने बलि को सम्बोधन कर कहा
इन्द्रसेन, तुम्हारा कल्याण हो
भाई बंधुओं के साथ में अपने
तुम अब सुतल लोक में जाओ।
बड़े बड़े अब लोकपाल भी
तुम्हें पराजित न कर सकते
तुम्हारी आज्ञा का जो दैत्य उल्लंघन करें
टुकड़े करूँ मैं अपने चक्र से।
तुम्हारी और तुम्हारे अनुचरों की
मैं स्वयं रक्षा करूंगा
अपने पास ही देखोगे
तुम मुझे यहाँ सदा सर्वदा।
दानव और दैत्यों के संसर्ग से
कुछ असुर भाव होगा जो
मेरे प्रभाव से दब जाये वो
और सब का सब नष्ट हो।