श्री हरिवंश राय बच्चन
श्री हरिवंश राय बच्चन
आज मेरी कलम लिखने बैठ गई हैं,
आपके काव्य संग्रह पर एक कविता।
कब से संभाला, इन्हें फूलों सा, दिल में,
आज बना लिया शब्दों का गुलदस्ता।
कल मुझे भी 'निशा निमंत्रण' मिला,
कहीं दूर 'खादी का फूल' है खिला।
'मिलन यामिनी' से करने की चाह थी,
'कटती प्रतिमाओं की आवाज़' में आह थी।
सागर तट पर वहीं 'एंकात संगीत' बह रहा हैं,
चांद, खाली 'मधुकलश' का शोक कह रहा हैं।
'सतरंगिनी' लहरें जैसे उदासीनता की दासी हैं,
वो 'दो चट्टानें' आज भी क्या मिलन की प्यासी हैं।
'आरती और अंगारे' भी अब बुझ गए हैं,
'उभरते प्रतिमानों के रूप' कुछ कह रहे हैं।
'बुध्द और नाचघर' दोनों ही मुझे बुला रहे हैं,
लोग मृगतृष्णा की 'धार के इधर उधर' भाग रहे हैं।
इस धरा पर कैसा 'हलाहल' छाया हैं?
पर 'प्रणय पत्रिका' ने तो प्रेम फैलाया है।
प्रभू की आराधना में 'तेरा हार' पाया हैं।
गांधीभक्ति में 'सूत की माला' पिरोया है।
मधु सी जीवन में बस गई है 'मधुबाला',
जिन्दगी का अर्थ सिखा रही है 'मधुशाला'।
चारों ओर मेरे था, 'चार खेमे चौंसठ खूंटे',
मोह की जद्दोजहद में 'बहुत दिन बीते'।
मेरा 'आकुल अंतर' अब बिल्कुल शांत है,
'बंगाल का काव्य' मेरे लिए एक सौगात हैं।
दुखों की 'त्रिभंगिमा' का अब 'जाल समेटा' हैं,
हरिवंशजी से 'आत्मपरिचय' का पाठ सिखा हैं।
