शराब
शराब
न है सुगंध मोहक, न रंग ही है रोचक,
हो फिर भी तुम लुभाती, नित जनता गुण है गाती।
जरा सी कोई पीता, सियार जैसा बनता,
चालाकी निज दिखाकर, बातें वो मीठी करता।।
थोड़ी सी और पीता, बन भेड़िया गुर्राता,
बलवान एक वो ही, निज बातों से जताता।।
इक घूँट और पीकर, बुद्धि को अपनी खोकर,
वश में ना खुद के रहता, चलने में लड़खड़ाता।।
फिर फिर वो कै भी करता, मल मूत्र से लिपटता,
सुअर की नाई दिन भर, कीचड़ में पड़ा रहता।।
आकर के श्वान उसके, मुँह को भी खूब चाटे,
निज नेह को जताता, कभी न दाँत काटे।।
जहाँ पे बँटती दारु, दावत बड़ी निराली,
मिले पियक्कड़ों को, भोगों की कई डाली।।
जो भी शराब पीता, वो सोशियल कहलाता।
शराबियों के दल में, ठहाके वो लगाता।।
ताकत बड़ी है इसकी, बाधा बगल से खिसके,
अफसर बड़े-बड़े भी, उसी की ओर सरके।।
जय हो शराब तेरी, तेरा है बोलबाला,
तेरे बगैर तरले! लग जाता मुख पे ताला।