शिकायतें तुम्हारी लाज़मी हैं
शिकायतें तुम्हारी लाज़मी हैं
शिकायतें तुम्हारी लाज़मी हैं
मैं अपने जज़्बात छुपा लेतीं हूँ
जब तुम मुझे देखते हो उन
उम्मीद वाली निग़ाहों से
और मैं मौन हुए नज़रे झुका लेतीं हूँ
क्यों की दिल की बात नज़रों से
बेहतर कौन समझे
इस तर्क से कई लब्ज़ होठों में
दबा लेतीं हूँ
जब तुम मुझे पुकारते हो ज़रा प्यार से
सारे शिकवे सब हार तुम्हें स्वीकार
लेतीं हूँ
चाहे कितना भी हो दिल दर्द भरा
तुम्हारी आँखों में ख़ुशियाँ दीदार लेतीं हूँ
पर हाँ, शिकायतें तुम्हारी भी लाज़मी हैं
मैं अपने जज़्बात छुपा लेतीं हूँ
वो जब हौले से मेरा हाथ थामते हो
कुछ इधर उधर की बातें कर
हड़बड़ाहट छुपा लेतीं हूँ
धड़कने ज़ोर होतीं हैं और गहरी सांस
लेतीं हूँ
फिर तुम मेरी ओर देखते हुए
शब्दों में ढेरों प्यार भरते हो
मुझे समन्दर सा साफ़,आसमान
सा शांत कहते हो
भोर कि लालिमा, साँझ की ओस
कहते हो
अंदर से नरम और ऊपर से ठोस
कहते हो
और फिर,
कुछ उदास चेहरे से, नज़रें फेर लेते हो
हां, मैं फिर खामोश थी
तुम्हारे जज़्बातों की गहराई में
अपनी उफनती भावनाओं को समेटने में
पर दोष जुबां का नहीं तुम्हारी चहिति
निग़ाहों का है
एक हुनर और ढेरों राज़ छुपाए बैठी हैं
इसका इल्म तुम्हें न होगा सारे अल्फ़ाज़
चुराए बैठी हैं
तो अब भी कुछ कह नहीं पाऊंगी बस
इत्मिनान में कुछ वक़्त इस खामोशी को देना
लाख़ों पन्नों की रचनाएं नजर आएंगी।