आईना
आईना
कुछ खास
कुछ अलग ढूंढने निकले थे,
जिसका अस्तित्व मेरा गुरूर हो।
राह पर ही
सही पर
कई अरसों बाद मिला था।
वो ऐसी चमक
जो कहीं और नहीं
पानी की तरह साफ़मन को भा गया,
तो उसे भीतर सजा दिया।
पर वो 'अलग' ही खटकता है अब
वो चमक बर्दाश्त नहीं होती
चुभती है, मेरे अभिमान को
एक कांच का टुकड़ा ही तो है,
तराश दिया उसे अपने हिसाब
अब न वो चमक रही,
ना 'अलग' वाली बात।
आईना बने आज भी है वो सामने
मेरी धुंधली सी तस्वीर दिखाता है।