शीशे की तरह साफ
शीशे की तरह साफ
शीशे की तरह आर पार हूं
फिर भी बहुतों के
समझ के बाहर हूं।
क्या सोचते हो तुम
कब तक हम समझते तुमको
एक दिन का नहीं बल्कि
सालों के सफ़र का हिस्सा थे हम।
समझते, चाह कर भी नासमझी की
आड़ में खंजर घोंपते रहे
मासूमियत को रौंदते
खुद की ही तसल्ली करते रहे।
कब चाहा था ये मंज़ूर भी होगा
कब मंज़ूर था ये मंजर भी दिखाई देगा
खुद की पहचान बनाने में
ऐसे मुसरूफ हो जायेगें
और दूसरे को जिल्लत दिखाओगे।
बेरहम से लोगों कीं
बातें सुनी थी कभी
तुम्हे देखकर ये अंदाज़ा और
वक़्त का तकाज़ा भी हो गया।
यूं ही हम तुम पर ऐहतबार करते रहे
यूं ही हमें तुम इन्कार करते रहे
इंसानियत को भूल कर ज़िन्दगी
की उलझनों में फंसा कर
क्या नज़र करवा दिया।
हमें खुद ही जीना सीखा दिया
शुक्रगुजार है हम उनके
क्या मंज़र दिखा दिया
हमको खुद ही से मिलवा दिया
हर्षिता को जज्बाते हर्षिता का
सफर तय करवा दिया
