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Harshita Dawar

Abstract

4  

Harshita Dawar

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जागने की आदत

जागने की आदत

2 mins
325


जागने की आदत

अदावत ए राहत

मेरे हिस्से की आदत बन कर सताने कब लगे?

दिल की बस्ती में हजारों लोगों की अनगिनत आवाज़

जो हमारे मुताबिक़ फलक तक साथ चलती रही, 

कुछ गलत लगती कुछ सही लगती ,पर सब ख़ामोश होकर दिल में सिमटने लगती ,

शांत पसंद कार्यों में सफलता प्राप्त करती रही,

आवाज़ धीमी सी कुरेदती आंखों के आईने में मेरी तरफ देखने लगी,

तस्वीरे मेरी मां के साथ वहा इज़्ज़त करवाती मिली,

मेरी मां यूनिवर्सिटी में प्रिंसिल थी।खुद को उसी साचे में आकने लगती,

खुद को उसी आले में तकने लगती, अब दिल में बसा लिया था ये बताना चाहती,

वहा मां की साड़ी को उसी आले को ढाक रही है, मां का एहसास फिर जगाने लगती,

मेरी देर रात दिल को कहने की आदत आंखो में छुपाई हुई है,पर मां पता नही कैसे समझ जाती है,

जैसे मेरी रूह कहाँ की कहाँ निकल जाती हैं, कभी ख़्वाब अटपटे सवाल ले आते हैं ये वक्त कहाँ है,

मैं कहाँ हूं, ये कौन बोल रहा है,ये आवाज़ किस की है, ये नैना किसी को ख़ोज रहे हैं,

ये धुआं कहाँ से आया है, मेरी देर तक जागने की आदत...रूह जाग रही है,

.उफ्फ मेरी नींद आंखो में हैं...नींद खुल गई...

मेरी जिस्म को सुलाकर मेरी रूह जागती और आना जाना चाहती मुझे अपने बिना समेत अन्य रूप में आ जाती है.

वो है यहीं, मैं हूं कहीं.. पूछती हूं, मेरे वजूद को रूह में सिमटने देती है.. मैं नींद में हूं रूह.. उफ्फ मेरी जागने की आदत..मेरी जान मेरी रूह को है.

..


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