शहर
शहर
मैं शायर हूं,
जो एक शहर की खोज में निकला हूं।
वो शहर जिससे सुगंध चंदन की भी आएं,
और साथ में गुलाबी इत्र रूह को महका जाएं,
एक शहर जिसमें भेद सलाम और सत्कार का ना हों,
जहां सिवाइयों और बूंदी का स्वाद एक सा हो,
जहां समानता का परचम दिन रात लहराता हो,
जहां सुबह का सुकून हो राशिद चाचा की चाय में,
जहां शाम ढले राम काका की मीठी इमरती से,
जहां एक मीठी चर्चा हर रोज़ हो,
उस चर्चा का हिस्सा श्लोक भगवत के और सबक कुरान के हो,
जहां बच्चे गाएं गीत ईद और दिवाली के,
जहां दीप जले हर रमदान,दिवाली पर,,
अपनी कापी कलम लिए निकला हूं,
अपने शहर अपनी गली से काफी दूर निकल आया हूं,
ना जाने वो शहर कहां हैं,
जो हर भेद से जुदा हैं,
जहां बारिश में कागज़ की नाव हो,
जहां बारिश हर एक को एक सी भिगोती हो,
अपने शहर में मैने एक छुपी हुई सरहद देखी हैं,
अकबर चाचा और रवि काका के घर के चबूतरे के बीच की गहरी दूरी देखी हैं,
इस दूरी को मिटाने मैं निकला हूं,
आंखों में उम्मीद लिए निकला हूं,
वो शहर जहां कोयल के गीत निराले हो,
उन गीतों में हीर और राधा की पीड़ हों,
जहां मोरनी भी बे सुध ऐसी झूमे,
की एक रंग के धरती और आसमां लगे,
जहां रंग पगड़ी और इमामे का एक सा हो,
एक रंग का चोला पहने हर मुसाफिर हो,
बांचे जाएं जहां एक स्वर में कव्वाली और कीर्तन,
जहां साध और पादरी के एक ठिकाने हो,
एक मोड़ मिला और उस मोड़ पर मैं रुका हूं,
अपनी कलम लिए उस शहर की एक तस्वीर बनाने लग गया हूं।
