सच का आईना
सच का आईना
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तुम एक बार नहीं कई बार बार करते हो।
नाम और जगह बदल कर वही दरिंदगी हर बार
करते हो।
हर बार किसी के जिस्म के कपड़ों को तार तार
करते हो।
हर बार अपनी मां की कोख को शर्मशार
करते हो।
क्यों नहीं आती शर्म तुम को, जब एक बेटी के
लिए केंडिल मार्च करते हो
और दूसरी लड़की की तबाही तुम खुद तैयार करते हो,
ये तुम एक बार नहीं बार-बार करते हो।
सभी संस्कारों और संस्कृति की धज्जियां
तुम हर बार उड़ाते हो,
मां, बेटी, बहन को देवी की तरह पूज कर
फिर अपने पैर के नीचे उसे क्यों रौंद डालते हो,
क्यों उस को रोशनी का रास्ता दिखा कर
जिंदगी भर के लिए अंधेरे में झोंक देते हो।
यह तुम एक बार नहीं हर बार करते हो
पुरुष समाज को शर्मिंदा बार-बार करते हो।